Friday 19 October 2012

मेरी पहली कहानी ......




(
विशाखपटनम इस्पात संयंत्र की गृह पत्रिका 'सुगंध', वर्ष २०१० में प्रकाशित)


उफ़ छुट्टी के दिन छुट्टी हो गयी.....


        एक रविवार के दिन घटना कुछ यूं घटी.  श्रीमान मदन जी घर पर ही थे.  दिन के नौ बजे थें.  वे दूसरी चाय की चुस्कियों के साथ अखबार पढ़ रहे थे.  तभी एक गाड़ी घर के सामने आकर रुकी.  उन्होंने दो क्षणों के लिए चश्मा हटाकर देखाऔर फिर अख़बार पढने में लग गए.   इतने में गाड़ीवाले ने आवाज़ दी -
साहब जी ! ओ साहब जी ! जरा सुनिए"  


 जरा नहींपूरी बात सुनेंगे"कहते हुए मदन जी ने गाडीवाले को अन्दर बुलाया. 


गाडी वाले ने पुछा - “साहब जी ! क्या यह घर चौथी गली का सातवाँ माकन है?”


क्यों क्या बात है? अगर कुछ देना हो तो कहो,  यही सही माकन है और अगर लेकर  जाना हो तो बोलो, गिनकर कहता हूँ",  मदन जी ने हँसते हुए कहा.  


गाडीवाले ने मुस्कुराते हुए कहा - देने ही आया हूँ साहब ! एक मेम साहेब ने 50 पौधे भेजा है.  साथ में यह फोन नम्बर भी दिया है.  जरा आप पौधों को गिन लीजिये और मेम साहेब को बता दीजिये की पौधे आपको मिल गए हैं." 


मदन जी सोचने लगे, “ये पौधे जरूर श्रीमती ईला ने भेजे होंगे.  लेकिन उन्होंने एक साथ इतने सारे पौधे क्यों भेज दिए?  वैसे तो हमारे पास करीब डेढ़ सौ किस्म के पौधे हैं.  वसुंधरा बेचारी इन पौधों से पहले ही परेशान है.  अब यदि उसने ये पौधे देख लिए तो गज़ब हो जाएगा.  इन्हीं विचारों में डूबे हुए मदन जी ने गाडीवाले को इशारे से वे सभी पौधे दीवार की ओर रख देने के लिए कहा और उसका दिया हुआ फोन नंबर अपने कुरते के जेब में डाल लिया.  जब गाडीवाले ने सभी पौधे रख दिएतब उन्होंने गमलों की गिनती की; और कहा -  भाई ! सब बराबर हैंबताओ तोतुम्हे कितने रूपये देने हैं?  “सौ रूपये साहब ! आप एक बार फोन करके मेम साहब को बता दीजिये" - गाडीवाले ने कहा."


"ठीक.... है" कहकर मदन जी ने पैसे दे दिए और गाडीवाला चला गया.  


मदन जी कुछ देर तक मुर्तीवत उन पौधों को देखते रहे.  उन्हें इस बार ख़ुशी कम और घबराहट ज्यादा हो रही थी.  वे सोचने लगे  आखिर श्रीमती इला को हो क्या गया है कि इतने सारे पौधे भेज दिए.  आज मेरा जन्मदिन भी तो नहीं है और न ही इला जी का कोई सालगिराह, फिर उन्होंने इतने सारे पौधे क्यों भेजे?  खैर ...... उनसे तो बाद में भी बात की जा सकती है लेकिन वसुंधरा ये पौधे देखेगी तो एकदम बरसा पड़ेगी.  उसका रक्तचाप जरूर बढ़ जायेगा.  जैसे भी हो,  इस समस्या का समाधान ढूंढना ही है.   इन पौधों से वसुंधरा को कोई तकलीफ नहीं होना चाहिए.  नहीं तो बेकार ही परेशान होकर तबीयत ख़राब कर लेगी. एक मिनट के लिए मदन जी को लगाकहीं इला जी शहर छोड़कर तो नहीं जा रहीं? तुरंत उन्होंने इला जी से फ़ोन करने अन्दर गए.  लेकिन तब तक उनकी बेटी कविता ट्यूशन जाने के लिए तैयार बैठी थी और उन्हें देखते ही उसने कहा, पापा मैं तैयार हूँ.  चलिए समय हो गया है."


"अच्छा बेटा ! तुम चलो, मैं अभी चाबी लेकर आता हूँ.  कविता बाहर आते ही उन सारे पौधों को देख चिल्लाकर कहने लगी "पापा..... इतने सारे पौधे कहाँ से आ गए?  कल शाम में भी तो नहीं थे?”  उसकी मीठी आवाज़ वसुंधरा के कानों तक पहुंचा.   जब उसने बाहर आकर ये पौधे देखे तो एकदम आपे से बहार हो गयी.  पहले उसे यह नहीं सूझा कि वह अपना गुस्सा किस पर उतारे? धडाधड रसोई में गयी और अपना पूरा गुस्सा बरतनों पर दिखाने लगी और बडबडाने लगी “हे भगवान कभी- कभी इनको क्या हो जाता है? भगवान जाने ये बच्चों को क्या पढाते हैं और वे क्या समझते हैं. न मुझे इनके करतूत समझ में आते हैं, न ही मेरी एक भी बात इनके पल्ले पड़ती है.  शादी के अट्ठारह साल हो गए हैं ........”


मदन मोहन मध्यम कद के सांवले आदमी हैं.  वे अत्यंत सरल, स्नेहशील एवं मजाकिया किस्म के इंसान हैं.  हर बात को सकारात्मक रूप से अपना लेना उनकी आदत है.  कोई समस्या आए, तो घबराने के बजाय हमेशा उनका हल ढूँढने का प्रयास करते.  इसलिए देखनेवालों को कभी-कभी लगता कि, इन्हें कोई भी समस्या ही नहीं है. 


वे हमेशा कहते – “समस्याओं से भागना हमारी कमजोरी को दर्शाती है और हम जितना उनसे भागते रहेंगे, वे उतना ही हमारा पीछा करती रहेंगी और हम उनमें उलझकर रह जाएंगे.” परन्तु किसी की प्रवृत्ति इतनी जल्दी बदलती थोड़ी ही है!! उनकी पत्नी वसुंधरा का रक्तचाप परिस्थितियों के अनुरूप बढ़ता-घटता रहता है.  इसी बात को ध्यान में रखते हुए,  वे अपनी पत्नी को हमेशा तनाव मुक्त रखने की कोशिश करते हैं.  यही नहीं, जब कभी किसी आदमी से कोई गलती हो जाया तो उसे क्षमा करने में विश्वास रखते हैं और मानते हैं कि मनुष्य को सुखी एवं संतुष्ट रखने के लिए इससे आसान तरीका कोई और हो ही नहीं सकता.


मदन एक विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफ़ेसर हैं, वे मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों को बहुत महत्व देते हैं.  वे अपने विद्यार्थियों को भी हमेशा यही शिक्षा देते हैं कि किताबी-ज्ञान आवश्यक है किन्तु व्यावहारिक शिक्षा उससे भी जरूरी है.  वे कोई भी बात विद्यार्थियों को उनकी भावनाओं को ध्यान में रखकर समझाने की कोशिश करते हैं.  इसी वजह से हर कोई उनसे बहुत जल्दी हे घुल-मिल जाता है.  विद्यार्थी भी उनसे काफी प्रभावित रहते हैं.


उन्हें पेड-पौधों से विशेष लगाव है.  इसलिए विद्यार्थियों को ग्लोबलवार्मिंग के बारे में सोचने तथा वनस्पति एवं प्रकृति के संतुलन की रक्षा करने की सीख देते रहते हैं.  वे पचास वर्ष के होने पर भी व्यायाम एवं सकरात्मक सोच के कारण अपनी उम्र से दस साल कम दीखते हैं,  हाँ, यह सही है कि उनके सर की आधी फसल उजड चुकी है,  लेकिन चहरे पर झुर्रियों का नामो-निशाँ तक नहीं है. 
       ईला जी भी विश्वविद्यालय में अर्थशाश्त्र की प्रोफ़ेसर हैं.  कई अवसरों पर इन दोनों की मुलाक़ात हुई.  पेड़-पौधों के मामले में दोनों के ख्यालात एक जैसे होने के कारण दोनों में दोस्ती हो गयी.  यदि कोई नया पौधा दीखता तो उन्हें तुरंत घर का वह कोना भी याद आता, जहां उसे सजाया जा सकता है.  वे दोनों जो भी पौधे खरीदते, दो खरीदते और एक दूसरे को भेंट करते.  ईला जी के पति मदन जी को ‘पौधा-मित्र’ के नाम से पुकारते थे. दोनों में दोस्ती भी हो गयी.  यदि कोई नया पौधा दीखता तो उन्हें तुरंत घर का वह कोना भी याद आता, जहां उसे सजाया जा सकता है.  दोनों के घर के आँगन में हमेशा रंग-बिरंगे पेड़-पौधे से भरे रहते और तो और गेट भी बहुरंगी लताओं से  घिरे रहते.  यह सब देखकर कोई भी समझ सकता है कि उन दोनों को पेड़-पौधों से कितना लगाव है. 


मदन जी अपने बेटी को ट्यूशन में छोडकर दस मिनट में वापस आ गए.  स्कूटर का स्टैंड लगाते हुए वे सोचने लगे कि आज शाम को ईला जी के घर जाएंगे और इन पौधों को भेजने का कारण पूछेंगे.  वसुंधरा रसोई में अपने काम में व्यस्त थी.  मदन जी कुर्सी पर बैठकर फिर अखबार पढ़ने लगे.  अखबार पढ़ने के बाद ईला जी को फोन पर शाम के अपने कार्यक्रम के बारे में बताने के लिए उठे और पत्नी को काम में व्यस्त देखकर कहा – ‘वसु ..... सुनो! आज शाम को हम ईला जी के घर जाएंगे.  उनके यहाँ गए बहुत दिन हो गए.  तुम कहो तो मैं फोन करके इत्तला कर देता हूँ.  ठीक है न .....?”


वसुंधरा कोई जवाब दिए बिना अपने काम में लगी रही.


मदन जी ने ईला के घर पर फोन लगाया.


“हैलो”, ईला जी के पति ने फोन उठाया.


“गुड मार्निंग विनोद जी..... ! मैं मदन बोला रहा हूँ”


“गुड मार्निंग मदन जी ! क्या हाल-चाल है? आपसे मिले बहुत दिन हो गए.... आपकी बेटी कैसी है?”


“जी सब ठीक–ठाक हैं धन्यवाद!  क्या मैं ईला जी से बात कर सकता हूँ?”


माफ कीजिएगा, ईला तो ऑफ स्टेशन है.  कल आएगी.  अगर मेरे लायक कोई काम हो तो बेहिचक कहिएगा. 


      “जी बहुत-बहुत शुक्रिया!  बहुत दिन हो गए,  सोचा बात कर लूं.  खैर कोई खास बात नहीं है. बस वे आयीं तो कह देना मैंने फोन किया था.”


“वासु ...... सुनो, इला जी आऊट ऑफ स्टेशन है.  आज उनके घर नहीं जा पाएँगे.”      


बस, इतना कहकर मानो उन्होंने मधुमक्खियों के छत्ते को छेड दी हों.  छुट्टी के दिन छुट्टी हो गयी.  वसुंधरा इसी तक में थी कि कब बात छिड़े...... और कब....... . उसने गुस्से से कहा – “अभी सारे पौधे आए नहीं क्या? या और भी कुछ बाकी हैं जो हमें जाकर लाना होगा?”


मदन जी को लगा कि गाड़ी पटरी से हट रही है.  उन्होंने पानी पीया और सोचने लगे कि बात कैसे शुरू की जाए?  फिर धीमी आवाज में कहा – यह बात मेरी समझ में नहीं आ रही है कि उन्होंने इतने सारे पौधे क्यों भेजे?

      वसुंधरा झिडककर बोली – “सीधी सी बात है, बेचारे उनके पति भी इन पौधों से तंग आ गए होंगे. .  बीबी शहर से बाहर गई तो मौका पाकर सारे पौधे आपको भेज दिए और आसानी से छुटकारा पा ली.  अच्छा है... सांप भी मर गया लाठी भी न टूटी...पौधे भेजे भी तो किसको, अपने मित्र को ही तो.  ईलाजी के नाराज होने का सवाल ही नहीं उठेगा और वे जब चाहेंगी, यहाँ आकार देख लिया करेंगी.”   


मदन जी ने मुस्कुराते हुए कहा – “अरे... तुम भी कैसी बातें करती हो? विनोद जी तो बहुत ही नेक और सुलझे हुए व्यक्ति हैं.  वे भले ही पौधों की देखभाल करना न जाने, लेकिन पौधों से उनको भी लगाव है.  उन्होंने इस मामले में हमेशा अपनी पत्नी को सहयोग दिया है”    


“मुझे भी पौधे पसंद हैं ... लेकिन जब पानी सर से ऊपर उठ जाता है, तब यही हालत होती है.  पेड़-पौधे किसे पसंद नहीं होते? लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपने घर को ही जंगल बना लें.  देखना, कामवाली बाई अभी की अभी तीन सौ रूपये बढ़ाएगी, हम नहीं देंगे तो काम पर आना छोड़ देगी.   फिर दूसरी बाई मिलना उतना आसान नहीं है.  यह बात आप नहीं जानते क्या?”


      “हाँ... हाँ... तुम ठीक कहती हो.  मैं भी यही सोच रहा हूँ. ”


      “क्या ख़ाक सोच रहें हैं आप? पिछले साल क्या हुआ था, याद नहीं है क्या? बाई के बगैर तीन महीनों तक मुझे अकेले सब काम करने पड़े थे.  लेकिन वह सब इस बार मुझसे नहीं होगा.”


      “मैं सब जानता हूँ, लेकिन इस बार ऐसी स्थिति थोड़ी ही आने दूंगा !”


“सुनिए.... मैंने भी सोच लिया है कि ये पौधे ऐसे अनजान लोगों को दान में दूँगी, जो फिर नजर न आयेंगे.  न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी.  हर बात की एक हद होती है.”      


मदन जी ने कहा – “तुम बेकार में परेशान मत होओ.  संस्कृत में कहा गया है कि .......”


      “वृक्षों रक्षति रक्षितः...., यही न? हजारों बार यह कहावत सुन-सुनकर मेरे कान फूल गए हैं.  अब और मुझसे बर्दाश्त नहीं होता....”


“ठीक है बाबा........”


इतने में बाहर बरामदे से किसी की आवाज सुनाई पडी. 


“साहब जी.....”


इस बार मदन जी सचमुच डर गए.  उन्होंने मन ही मन सोचा - “कमबख्त, फिर से कोई पेड़ या पौधा तो नहीं उठा लाया?” वे बाहर आए और देखा तो अब की बार गाड़ी वाले के साथ एक औरत भी आयी हुई थी.  मदन जी ने गाडीवाले से पूछा – “अरे तुम फिर आ गए? और पौधे तो नहीं लाये हो न.........?”


“साहब जी.... क्या आपने मेम साहब को फोन नहीं किया?


“किया तो था.... पर वे तो शहर में हैं ही नहीं... उनके पति से बातें हुई थी.”


      “क्या कह रहे हो साहब.... मेम साहब तो आपके सामने ही खड़ी है और ये कहती हैं कि आपने कोई फोन नहीं किया...” कहते हुए गाडीवाले ने उस औरत की ओर देखा.


      मदन जी ने नम्रता से कहा – “माफ़ कीजिये मैंने आपको पहचाना नहीं.....”


वह औरत दो कदम आगे बढ़कर कहने लगी – “भाई साहब! मेरा नाम ललिता है.  इस गाडीवाले ने गलती से वे पौधे आपके घर दे दिए हैं.  दरअसल उन्हें अगली गली के चौथे घर में देना था.  जो नया घर बना है, वह हमारा ही है.  मैंने ये पौधे अपने नए घर के लिए खरीदा है.  फिर भी अगर आपको इनमें से कोई भी पसंद हो तो आप ले सकते हैं”    


झट से वसुंधरा ने कहा - “नहीं-नहीं कोई बात नहीं ... वैसे हमारे यहाँ कई पौधें हैं... धन्यवाद”


श्रीमान ओर श्रीमती मदन जी, दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्कुराए और  राहत की साँस ली.  वसुंधरा ने ललिता को अंदर बुलाकर चाय पिलानी चाही लेकिन ललिता ‘फिर कभी’ कहकर सौ रूपये वापस किए और उनसे विदा लेकर चली गई.  बाद में जब मदन जी ने अपनी जेब से वह पर्ची निकालकर देखा तो वह फोन नंबर ईला जी का नहीं था.  पहली बार पौधों को घर से जाते देख मदन जी काफी खुश थे.