हूँ
चलने लगा, मैं भीड़ संग, डगर-डगर शहर-शहर
है
घर-द्वार और ठिकाना, जाने क्यों बस चल पड़ा
पाप-पुण्य
की गठरी बाँधे तेरे द्वारे मैं निकल पड़ा
बस चलता चला आ रहा मैं, हूँ मैं एक मुसाफिर
मैं
नहीं चलता, आगे बढ़ता, है मुझे समय चलाता
बिन
पहिए का होकर भी न रुकता और न थमता
संगी,
साथी, बंधु सब हैं, किन्तु तुम ही मेरे पुछार
मैं तो जीवन पथ पर चलता, हूँ मैं एक मुसाफिर
जीवन
रूपी गाड़ी में मैं, सबके संग चढ़ता-उतरता
पर
सबके अपने रास्ते हैं और सबके अपने विचार
मैं
तेरा बैरागी, भक्त और सखा तू ही सच्चा यार
इसी भरोसे चला आ रहा, हूँ मैं एक मुसाफिर
कष्टों
से तू तरने वाला, बस मात्र परवरतीगार
मंजिल
मुझे दिखादे तू, बस अब कर यह उपकार
मैं
हूँ तुझे बहुत मानता, हूँ एक फक्कड़ मुसाफिर
न मानने वाला काफिर भी कहलाता एक मुसाफिर
जयहिन्द
डॉ दुर्गा