Friday 10 June 2011

मुसाफिर

हूँ चलने लगा, मैं भीड़ संग, डगर-डगर शहर-शहर

है घर-द्वार और ठिकाना, जाने क्यों बस चल पड़ा

पाप-पुण्य की गठरी बाँधे तेरे द्वारे मैं निकल पड़ा

बस चलता चला आ रहा मैं, हूँ मैं एक मुसाफिर

मैं नहीं चलता, आगे बढ़ता, है मुझे समय चलाता

बिन पहिए का होकर भी न रुकता और न थमता

संगी, साथी, बंधु सब हैं, किन्तु तुम ही मेरे पुछार

मैं तो जीवन पथ पर चलता, हूँ मैं एक मुसाफिर

जीवन रूपी गाड़ी में मैं, सबके संग चढ़ता-उतरता

पर सबके अपने रास्ते हैं और सबके अपने विचार

मैं तेरा बैरागी, भक्त और सखा तू ही सच्चा यार

इसी भरोसे चला आ रहा, हूँ मैं एक मुसाफिर

कष्टों से तू तरने वाला, बस मात्र परवरतीगार

मंजिल मुझे दिखादे तू, बस अब कर यह उपकार

मैं हूँ तुझे बहुत मानता, हूँ एक फक्कड़ मुसाफिर

न मानने वाला काफिर भी कहलाता एक मुसाफिर

                                                                                            जयहिन्द 

                                                                                         डॉ दुर्गा