Thursday 29 November 2012

आई लव कौवा ..... बट.....!! (लघुकथा)





आई लव कौवा ..... बट.....!!

          यमलोक में सभी लोगों के साथ मैं भी कतार में थी.  मेरी बारी भी आयी और मैं यमराज के सम्मुख पहुँची.  एक बार मैंने ऐसे ही पीछे मुड़कर देखा; तो मैंने देखा कि मेरे पीछे एक कौवा भी कतार में है.  मुझे लगा कि मैं उस कौवे को जानती हूँ.  अरे हाँ !! यह तो वही कौवा है जिसे मैं रोज अपने रसोईघर के पीछे दीवार पर उसके लिए रखी मिट्टी के पात्र में एक में पानी और दूसरे में कुछ न कुछ खाने के लिए दिया करती थी.  उसे देख मुझे बड़ी खुशी हुई.  ऐसा लगा मानो मेरा सगा कोई कतार में खड़ा है. 
        भूलोक के कतारों में कोई किसी का सगा नहीं होता.  वहाँ अगर कोई व्यक्ति कतार के धक्कमधक्की में भी चुपचाप अपना काम निकाल ले न तो मैं मानूं....... भूलोक की कतारें नरक से कम नहीं होतीं.  इन कतारों की यह विशेषता होती है कि यहाँ न यमराज होता है, न यमदूत होते हैं और न ही चित्रगुप्त; बल्कि यहाँ रहने वाले मनुष्य ही अप्रत्यक्ष रूप से इसका संचालन करते हैं.  इसे चलने के लिए प्रबंधन की आवश्यकता होती.  केवल स्वार्थ की भावना ही काफी होती है.  और तो और इस नरक में सभी वर्ग के लोग आमंत्रित होते हैं.  परलोक का नरक केवल एक ही होता है.  परन्तु यहाँ सबेरे के दूध से लेकर शाम के सिनेमा टिकट तक कतार ही कतार मिलेंगे.  जिस नरम में चाहे घूम आओ.  ध्यान देने वाली बात यह है कि बेचारा यमराज मरने के बाद ही सजा देता है. किन्तु यहाँ....?  है न वह सही मायने में धर्मराज...? जब हम खुद ही स्वयं को सजा देते हैं तो जरूरत.... और यमराज देता है तो सजा ... हुई न भूलोक वाली बात .... ?   
         खैर.... मुझे दुःख हुआ कि बेचारे कौवे की अकाल मृत्यु हो गई.  लेकिन क्यों और कैसे हुई होगी ? हाँ... जरूर मेरे बगैर भूखा मर गया होगा बेचारा.  किन्तु दुनिया में ऐसे कितने कौवे नहीं हैं जो अन्य जगहों पर खाना ढूंढ लेते हैं ?  इसने भूखों मरना मंजूर था किन्तु दूसरों के हाथ का खाना नहीं.  कितना प्यार करता रहा होगा यह मुझसे... मुझे पता ही नहीं चला.  मैं ही इसके काँव-काँव को समझ नहीं पाई.  हुंह.. अगर मेरे पति कभी इस कौवे की तरह सोचते तो मेरे भाग न खुल जाते ?  कितना अच्छा होता अगर कोई प्यार मापन मशीन होता और उसके हिसाब से हम किसी से प्यार कर पाते.   
        मैं उसके साथ बातें भी तो नहीं कर सकती न..?   वह तो कौवा ठहरा.  लेकिन कितना अच्छा लगता है यह सोचकर कि हम दोनों एक ही भूखण्ड से, अर्थात जम्बूद्वीप के दक्षिणी भाग के आंध्र के विशाखपटनम से आए हैं.  हम दोनों का पता भी एक है.  हमारे घर के पीछे जो बड़ा सा पेड़ था, यह उस पर यह रहता था.  मैं जब भी, जब तक भी इससे बोलती थी, सभी बातों को ध्यान से सुनता.  आज तक मुझे कतई यह याद नहीं कि कभी मेरे पति ने मेरी पूरी बात सूनी हो.  बिना सुने ही काँव-काँव करने लगते थे.     
       कौवा मनुष्यों की तरह अभिवादन तो नहीं कर सकता न ? फिर भी मुझे उस पर एक प्रकार का अपनापन महसूस हुआ इसलिए में उसे देख मुस्कुराई और गुनगुनाते हुए कहा – हाऊ डू यू डू ? हैप्पी टू सी यू हियर, बट सैड टू से दट यू आर आलसो डेड.  एस्यूशुअल इस बार भी जब तक मैं बोल रही थी तब तक वह मेरा चेहरा ताकता रहा और जैसे ही मेरा बोलना खत्म हुआ, हमेशा की तरह उसने अपनी गर्दन घुमा ली. 
        बही हाथ में पकडे चित्रगुप्त मेरे पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क का गिन-गिनकर हिसाब-किताब करने लगे.  मुझे लगा कि मेरे मामले में कुछ ज्यादा ही देर कर रहें हैं.  मैं चित्रगुप्त के बारे में पहले ही जानती थी, और दादी ने भी कहानियों में बताया था कि चित्रगुप्त हिसाब-किताब बराबर रखते हैं.  अलबत्ता वे कम्प्युटर से भी सौ गुणा तेज और सही होते हैं.  यह में प्रत्यक्ष रूप से, मुझसे पहले खड़े लोगों को देख निश्चिन्त हो गई.  पापी का नाम लेते ही चुटकी में बायोडाटा हाजिर.  गूगल सर्च से भी तेज.  एक बार कह देते हैं तो मानो पत्थर की लकीर हो; जिसका कोई अपील ही नहीं हो सकता.  मुझे लगा कि अगर मेरे बारे में...  अगर..... गलत-शलत फैंसला करेंगे तो भी मेरे पड़ोसी कौवे को देखकर मेरे पुण्य कृत्य जरूर याद आ जायेंगे.  देखा.... बुजुर्ग सोलह आना सच कहते हैं – जैसा कर्म करोगे वैसा ही फल पाओगे.  मैंने इसे खाना खिलाया, मेरी रक्षा करने के लिए भगवान ने इसे मेरे पीछे-पीछे भेज दिया.  आवश्यकता पड़ने पर यह मेरा पक्ष जरूर लेगा.  किन्तु कैसे ? क्या इसे पता होगा कि मेरी रक्षा करनी है? काश यह कुछ समय के लिए ही सही, कम से कम मेरे मामले की सुनवाई तक यह हमारी तरह बोल पाता.....!!
       हमसे पहले के जीव जिनकी सुनवाई हो गई थी, उन्हें उनके कर्मों के अनुसार सजा देने के लिए घसीट-घसीटकर ले जा रहे थे.  जैसे – अगर कोई व्यक्ति सरकारी पैसों का गबन किया हो या बेरहमी से लोगों से पैसे वसूल किया हो, तो उसे भूखे गिद्ध और चील के मैदान में जिन्दा ही उनके भोजन के रूप में डाल दिया जाएगा.  गिद्ध और चील भी उन्हें वैसे ही नोच-नोचकर खाएंगे जैसे उसने नाक पकड़ कर लोगों से अन्यायपूर्ण वसूल किया था. 
         मैंने सोचा ....... मेरे साथ इतनी बदसुलूकी नहीं की जाएगी क्योंकि मैंने छोटे पाप किए हैं जो मुझे ठीक से याद भी नहीं हैं और न ही मैंने कोई हिसाब रखा है,  लेकिन इतना जरूर कह सकती हूँ कि मैंने कोई ऐसे मोटे पाप नहीं किए हैं, जिनके लिए ऐसे भयानक सजा मिले.  इसलिए मुझे ऐसे घसीटकर नहीं लिवा ले जाएंगे.  और तो और मैं यहाँ भी कौवे के लिए कुछ करती जाऊँगी.  इतने दिन खिलाकर सहायता की है तो एक और बार सही.  मुझे खुशी होगी. 

          मैं कौवे को थैन्क्यू भी तो नहीं बोल सकती थी? मुझे लगा – कितना अच्छा होता भूलोक में जानवर और पंछी भी हमारी तरह बोल पाते...... ! फिर मैंने अपनी अक्ल लड़ाई और सोचा - न न अगर ऐसा होता, तो मुश्किल न हो जाता ? क्योंकि आज-कल के राजनीतिज्ञ, पैसों से अनपढ़ तो अनपढ़ बुद्धजीवियों तक का सौदा कर डालते हैं. ये तो फिर भी चंद दानों और चारा तक के लिए बिक जाते हैं.  इंसान घास से दोस्ती करेगा तो फायदे में रहेगा.  किन्तु पक्षी और जानवर तो भूखो मर जाएंगे.  वे तो मतिहीन हैं उनसे उम्मीद ही क्या किया जा सकता है?  दाना-चारा के लिए पूरी की पूरी पक्षी और जानवर जाती बिक न जाते? इतना ही नहीं वे भी आपस में एक दूसरे को नोच-खसोट, झगड़ा-टंटा और मार-काट करते नजर आते और राजनीतिज्ञ अपना उल्लू सीधा करते.  राजनीतिज्ञों की सेवा में उनके दरवाजों, दीवारों एवं खिड़कियों पर ही बैठे रहते.  जहाँ जानवर और पक्षी झुण्ड में होते, वह घर किसी राजनीतिज्ञ का ही होता.  कितनी मादा कौव्वाएं बेघर हो गयी होतीं.  कितनी कौवीं माँ नहीं बन पाती, कितने बंधन टूट जाते.....? यह सब एक तरफ, तो दूसरी ओर... मादा कोयल कहाँ अण्डे देती? हाय राम... तब तो गजब हो जाता...! प्रकृति के विरुद्ध या तो कोयल खुद घोंसला बनाना सीख लेती या फिर उनका नस्ल ही हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो जाता.  वसंत ऋतु के आगमन का पता ही न चलता. सात सुरों का पंचम स्वर का सृजनकर्ता का लोप न हो जाता. 
        जिस प्रकार सभ्य समाज के राजनीतिज्ञ प्रजा को हमेशा घाटे में रखकर हर हाल में जीतते आए हैं, उसी प्रकार चुनाव में भी राजनीतिबुद्धि का प्रयोग कर, विविध हथखंडे अपनाकर, जानवरों और पक्षियों को ही आपस में लडवा देते.  जिस प्रकार मुर्गों की लड़ाई में यह हमेशा तय रहती है कि दोनों पक्षों में केवल मुर्गे ही घायल होते हैं और लडवाने वाले मनुष्यों की पाशविकता ही जीतता है.
      चित्रगुप्त मेरा नाम पुकारते ही मैं आपे में आई.  मैं बिल्कुल विश्वस्त थी कि नरक भी मिला तो थोड़े समय के लिए होगा और जल्द ही मुझे वहाँ से स्वर्ग भेज दिया जाएगा क्योंकि जैसे कि मैंने कहा था,  मैंने ऐसी कोई गलती नहीं की थी कि किसी को दुःख पहुचें.  मैं अपने माँ-बाप की होनहार बेटी थी.  स्कूल में भी हमेशा अव्वल आकार अध्यापकों को खुश किया.  मेरे मित्र भी मुझे बहुत चाहते थे.  मैंने नारी बनाकर सभी कर्तव्य निभाए.  दान-दक्षिणा, पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, धाम-भ्रमण जैसे कई सत्कर्म भी किये.  इतना ही नहीं हमारे पड़ोसी के यहाँ जो गाय थी, उसे घास खिलाया, मुर्गियों को दाना दिए....... और तो और एक और पुण्य काम यह किया कि, मैंने इस कौवे को रोज निवेदित खाना खिलाया.  ब्रह्मण का खिलाया नैवेद्य, सात्विक खाना खाने के कारण इसे स्वर्ग की प्राप्ति जरूर होगी.  फिर भी अगर मुझसे जाने अनजाने में पति के मामले में छोटी-मोटी गलतियाँ हों भी गई हों, तो उसके लिए नर्क में जाना तो पडेगा किन्तु कम समय के लिए....   न के बराबर.  फिर वहाँ से पुष्पक में सीधा स्वर्ग.  मगर इस कौवे को एक और जन्म लेकर, मेरी तरह सत्कर्म कर, साबित करना होगा कि वह उत्तम है और तब जाकर स्वर्ग में कदम रख पाएगा.  चलो...... उसका जन्म बेहतर होगा और मेरा बेहतरीन.  अगले जन्म में यह कौवा अपने जैसे दूसरे कौवे को मनुष्य बनाने का अवसर प्रदान करेगा और स्वर्ग आ जाएगा.
      कतार बहुत ही लंबी थी. लोगों के चहरों पर तनाव और भय नजर आ रहा था.  लेकिन मैं शांत थी.  कौवा भी मेरे पीछे डर के मारे चुप था, मानो चोंच में रोटी भरा हो.  चुपचाप खड़ा अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था.  मुझे परध्यान देखकर चित्रगुप्त ने थोड़ी सी ऊंची आवाज में पुकारा.  उन्हें देख मैं मुस्कुराई और अभिवादन के लिए थोडी सी झुकी.  चित्रगुप्त ने ऐसा देखा जैसे गोबर में पाँव आ गया हो. 
       चित्रगुप्त ने मेरे नाम के साथ ‘महाकुम्भीपाककहा.  मैंने सोचा चमत्कार हो गया, पहली बार चित्रगुप्त गलत कर बैठे, वो भी मेरे मामले में.  न जाने यमराज उनकी इस जल्दबाजी के लिए उन्हें क्या सजा देंगे.  कोई बात नहीं .... मैं उनकी तरफ से क्षमा माँग लूंगी.  मगर यमराज ने दो दूतों को ताली मारकर बुलाया.  वे दोनों यमराज से भी भयानक लग रहे थे.  सर पर दो सींग, ओठों के दोनों छोर बाहर निकले दो दांत, बिना चप्पलों के खून से लथपथ पैर, लाल-लाल आँखें, मोटी-मोटी मूंछे, जिनके अन्दर से आवाज तो आती है किन्तु जुबान नहीं दिखती.  उन्हें देख मुझे घृणा भी हो रही थी और उस स्थिति पर गुस्सा भी आ रहा था. 
मैंने धीमी आवाज से, धीरे से गंभीर होकर कहा – “रुकिए ऐसा कैसे हो सकता है?”इतने में मेरे पीछे खडे कौवे ने अपने पंख जोर से फड़फडाया.  मैं समझ गई कि कौवा भी उनके फैंसले से खुश नहीं है.
चित्रगुप्त – “क्या कैसे हो सकता है?”
मैंने आत्मविश्वास के साथ कहा – “मैं जानती हूँ कि संसार में मेरे नाम के लोग और भी हैं, इसलिए भ्रान्ति होना लाजमी है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि आप किसी का भी पाप मेरे सर पर थोपें और मैं उनकी सजा भुगतूं.”
चित्रगुप्त – “किसी और का पाप भला मैं तुमको क्यों देने लगा?  अनुशासन यहाँ का साँस है.  हमारे दूत ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाते हैं.”
झल्लाकर मैंने कहा – “मैंने पाप जरूर किए होंगे लेकिन इतना बड़ा पाप नहीं किया कि आप मुझे महाकुम्भीपाक में झोंक दें.”
चित्रगुप्त – “ए लडकी शिष्टाचार निभाओ...... क्या अनाप-शानाप बके जा रही हो? तुम्हारे पीछे खडा कौवा तुम्हारे कारण ही भूलोक में अकेला पड़ गया.  यह अपने परिवार से बिछड़ गया, उनके बिरादरीवालों ने भी इससे नाता तोड़ लिया.  इसी मानसिक वेदना को झेल नहीं पाया और तड़प-तड़पकर मर गया.  परोक्ष रूप से तुमने इसकी ह्त्या की है...... ह्त्या.”
मैं स्थब्ध रह गयी “क्या...? ऐसा कैसे हो सकता है?”
मेरे पीछे का कौवा गुस्से से बोला – “ऐसा ही हुआ है.......”
मैं झट से पीछे मुड़ी – “हैं.........!! तुम बोल सकते हो...? इतनी देर से जब मैं बोल रही थी....., तो तुम्हारा मुँह क्यों बंद था? मेरे पीठ पीछे मेरे खिलाफ इशारे करता है? अब यह बताओ कि यह सब क्या हो रहा है? मेरे कारण तुम मर गए....? विश्वास नहीं होता कि तुम वही कौवा हो जिससे मैंने प्यार किया और प्यार से खिलाया था..... चित्रगुप्त के कान जरूर तुमने ही भरे होंगे.  जब मैं खिलाया करती थी, तब तो बड़े चाव से गटक जाते थे अब जब मुझे स्वर्ग जाने का मौका मिल रहा है तो जलन होने लगी है ? तुम्हारे शरीर के साथ-साथ तुम्हारा दिल भी कला होगा... मैंने सोचा न था. 
कौवा – “बस-बस रहने दो ...., ज्यादा पुण्यात्मा बनने की जरूरत नहीं है.  मुझे तुमने इसलिए खिलाया क्योंकि हम पितर माने जाते हैं.  हमें खिलने पर तुम्हारे पितर तृप्त होते हैं.  पुन्यात्मा तो वह है जिसने यह सिद्धांत बनाया. न कि तुम खिलाने वाले.  ज्यादा अकड़ने की जरूरत नहीं है.  इसमें तुम्हारा योगदान कुच्छ भी..... नहीं है.”
मैंने सोचा अब हद हो गई – “आज-कल की इस महंगाई की मार ने मनुष्य तक को जानवर से बत्तर बना दिया है.  लोगों के फेंके गए कचड़े में से वह अपने लिए काम की चीज ढूंढता नजर आता है.  उसे देख मुझे ऐसा एहसास होता है कि भ्रष्ट एवं बेईमानी की सड़ी बू से भरी इस दुनिया रूपी कूड़ेदान को उलट-पलटकर ढूँढने पर भी मुझे कोई काम का व्यक्ति या चीज नहीं मिल सकता.  ऐसे में एक कौवे को भगवान का नैवेद्य खिलाती रही, पापी कौवा.....!! उल्टा चोर कोतवाल को डांटे...... वाह रे वाह तू तो बड़ा स्वार्थी निकला.... एक तो चोरी ऊपर से सीना जोरी...? डरपोक कहीं के..... दूसरों के कन्धों पर बन्दूक रख कर वार करते हो...? याद रखना चूंकि तुमने स्वच्छ और पवित्र खाना खाया है, आज मनुष्यों की भाषा बोल रहे हो.... वरना काँव-काँव करते हुए विचरते रहते.  नहीं खाना था तो नहीं खाते.... गंदगी में ही रहते और गंदागी में ही मर जाते..... ! रोज-रोज मेरे यहाँ आने की क्या जरूरत थी?”
चित्रगुप्त ने अपने हाथों से दोनों को चुप रहने का इशारा किया. 
मैंने भारी मन से चित्रगुप्त से कहा – “चाहे दुनिया में कितने ही सुन्दर पक्षी क्यों न हो, मैंने हमेशा काले कौवे को पसंद किया, किन्तु मुझे काला दिल और कला चेहरा कतई पसंद नहीं है.  कोई बात नहीं चित्रगुप्त जी ..... आई एक्सेप्ट....... जल्द से जल्द आप मुझे सजा के तौर पर जहां चाहे भेज दें किन्तु इस एहसान फरामोश कौवे को, इस नरक को.... मेरे सामने से फ़ौरन रफा दफा कीजिए.”
कौवे को बहुत गुस्सा आया और चिल्लाता रहा.  “इसे महाकुम्भीपाक ही नहीं बल्की और भी कष्टदायक, कोई अखण्ड पाक हो तो वहां भेज दें...... और अगर आप चाहें तो मैं भूलोक से कोई तगड़ा सिफारिश भी लेकर आ सकता हूँ.... काँव-काँव-काँव..........”
सबेरा हो गया.......?  रोज की तरह आज भी मुझे जगा दिया.  चलो...कोई बात नहीं... आफिस भी तो जाना है.....!
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