हिन्दी का वैश्विक
संदर्भ
वैश्विक धरातल पर
हिन्दी सिनेमा दशा एवं दिशा
|
सिनेमा मनोरंजन जगत का उत्कृष्ट साधन
है। पहले सिनेमा समाज में सीमित लोग ही
देख पाते थे। शहरों में रहने वाले लोग
सिनेमाघर जाकर बड़े पर्दे पर सिनेमा देखते थे और उनका सम्पूर्ण आनंद ले पाते
थे। किन्तु टेलीविज़न का चमत्कारी आविष्कार
ने उन्हीं सिनेमाओं को, छोटे रूप में घर-घर
पहुँचाया। वर्तमान समय में टेलीविज़न एक ऐसा
साधन बन गया है, जिसके द्वारा मनोरंजन की कल्पना न के समान
है। बड़े पर्दे पर सिनेमा देखने की अवस्था
होने पर भी प्रत्येक वर्ग के लोग अपने घरों में टेलीविज़न भी रखते हैं और उसका लाभ
भी उठाते हैं।
भारत देश में सर्वप्रथम 1913 में बनाई
गई 'आलमआरा', 'सत्यहरिश्चंद्र' सिनेमाएँ वैश्विक धरातल पर केवल मानवमूल्यों के संदर्भ में ही लिया जा
सकता है। किन्तु यह केवल एक प्रयोगात्मक
प्रक्रिया थी। हिन्दी भाषा के मूल्यांकन
के रूप में नहीं। इसका प्रदर्शित समय भी
कम होता था। क्योंकि उक्त सिनेमाएँ मूक सिनेमाएँ
थी। जिनमें केवल अभिनय किया जाता था, स्थिति, संदर्भ
और विषय स्लाइड पर लिखावट के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाता था। स्वतन्त्रता के
उपरांत आईं कुछ सिनेमाओं को वैश्विक धरातल पर अवश्य लिया जा सकता है। 40 से 60 दशक तक जो सिनेमाएँ बनतीं थीं, वे सामाजिक एवं भारतीय जीवन शैली से ओतप्रोत हुआ करतीं थीं। कालांतर में विभिन्न प्रकार की सिनेमाएँ जैसे –
सामाजिक, व्यक्तिगत, मनोवैज्ञानिक, सत्यकथाएँ, तिलिस्मी,
रहस्यात्मक, भयानक, आपराधिक, पारिवारिक आदि आईं। इनके अलावा शनैः-शनैः सिनेमाओं में असामाजिक तत्व
भी जुड़ते चले गए। जिनका प्रभाव हिन्दी भाषा पर भी पड़ा।
रंगमंच पर खेले जाने वाले नाटकों की
भाषाई एवं व्यावहारिक गरिमा सर्वदा होती थी और उसे जारी रखने का प्रयत्न भी किया
जाता है। आरंभ में बने भारतीय फिल्मों में
भी इस प्रकार की गरिमा बनाए रखने का प्रयत्न किया जाता था। किन्तु फिर भी नाटक की तुलना में फिल्मों में
अभिनय किंचित भिन्न होता है। यह अंश
अत्यंत विस्तृत और उक्त विषय से परे है।
इसलिए ऐसे तथ्यों पर प्रकाश डालना अनावश्यक है। उच्च
विचार सर्वदा भाषा के उच्च स्वरूप को प्रतिबिम्बित करता है। उदाहरण के लिए ‘पूरब
और पश्चिम’ सिनेमा में यही छवि दृष्टिगोचर होती है। इस सिनेमा में भारत नामक युवक विदेश जाता
है। वहाँ शर्मा जी की बेटी प्रीति उससे विवाह
करना चाहती है। किन्तु बचपन से विदेश में
पली-बड़ी होने के कारण वह भारतीय संस्कृति को न वह जानती है,
मानती है, और न ही अपनाना चाहती है। शर्मा जी चाहते हैं कि उनकी बेटी भारत से विवाह
कर हिंदुस्तान में बस जाए। भारत प्रीति से
प्रस्ताव रखता है कि, विवाह से पहले एक बार वह उसके साथ
हिंदुस्तान आए। प्रीति केवल एक बार जाने
के लिए राजी हो जाती है। प्रीति के पिता
शर्मा जी डरते हैं कि अगर प्रीति को हिंदुस्तान पसंद नहीं आएगा तो भारत को भी उन्हीं
की तरह विदेश में बिना इच्छा के रहना पड़ेगा।
वह चिंतित हो जाता है और भारत से इसकी चर्चा करता है। यथा –
शर्मा : भारत ये क्या वचन दे
दिया तुमने? बेटे! हिम्मत हार गए हो या मजबूरी के सामने सर झुका
दिए?
भारत : नहीं ये बात नहीं है
शर्मा : तो फिर ये वचन क्यों
दे दिया तुमने...? तुम वापस आओगे?
यहाँ बस जाओगे?
भारत : अगर प्रीति वापस आए तो
शर्मा : बेटे ! जो तुम सोच
रहे हो अगर वो नहीं हुआ तो?
भारत : वचन दिया है वापस आऊँगा। मगर नहीं चाचाजी ऐसा नहीं होगा। अपने यहाँ जो मिट्टी की खुशबू है न वो तो अजनबी
के साँसों में भी संस्कार भर देती है, ये मेरा विश्वास है।
उक्त संवाद में एक भारतीय युवक का देश
प्रेम और बेटी के पिता का छटपटाहट दृष्टिगोचर होता है। यह सेनेमा विषय के अतिरिक्त गाने के बोल, अभिनय और संवादों के लिए प्रसिद्ध है।
जिसकी भावनाओं को वर्तमान युवा पीढ़ी भी अनुभव करती है। अचेतन और अवचेतन अवस्था में छिपी हुई भावनाएँ
इस प्रकार के सिनेमा से बहिर्गत होते हैं।
इसी प्रसंग को हालही में आए सिनेमा ‘नमस्ते लंदन’ सिनेमा में, अर्थात् सैंतीस वर्ष के उपरांत पुनः
पूरब-पश्चिम सिनेमा के विषय पर निकाली गई सिनेमा में, दबंग
रूप से संवादों की प्रस्तुति की गई। भाषाई
रूप से तुलना किया जाय तो हमें यह विदित होता है कि 'पूरब
और पश्चिम' की तुलना में ‘नमस्ते लंदन’ सिनेमा की भाषा हल्की, व्यंग्य, मिश्रित और सरल है। वर्तमान
सिनेमाओं में भाषाई गरिमा से भी भावनाओं की प्रस्तुतीकरण को अधिक महत्व दिया जा
रहा है। यथा –
अर्जुन : (जसमीत
की ओर देखते हुए) उसके परदादा ने कुछ और इंडिया देखा है। असल इंडिया की सैर करवाते हैं उसको....... 5000
साल पुरानी सभ्यता के वजह से हम सबको ऐसे ही झुकके प्रणाम करते हैं। ऐसी सभ्यता जिसमें कैथलिक प्रधानमंत्री कुर्सी
एक सिख के लिए छोड़ देती है और एक सिख प्रधानमंत्री पद की शपथ एक मुस्लिम
राष्ट्रपति से लेता है। उस देश की बागडोर
संभालने के लिए जिसमें 80 प्रतिशत के लोग हिन्दू हैं। आपकी मातृभाषा अंग्रेजी पूरी दुनिया में सबसे
ज्यादा हमारे ही देश में घिसी जाती है।
और आपको शायद यह भी नहीं पता कि अंग्रेजी के ज़्यादातर शब्द संस्कृत
से लिए गए हैं। संस्कृत का शब्द ‘मातृ’ मदर, ‘भातृ’ बना ब्रदर, ‘ज्यामेति’ बनी ज्यामेंट्री और ‘त्रिकोण्मेत्रि’ बनी ट्रिगनोमेट्री।
आपको शायद यह बात दिलचस्प लगेगी कि हमारे यहाँ 21 भाषाओं में 5600 अख़बार
और 3500 मैगजीन छ्पती हैं, जिसे पढ़ने वालों की संख्या
12 करोड़, जो आपके देश के मुक़ाबले कई ज्यादा
हैं। चाँद तक पहुँच गए हम पर तब भी आप
लोगों को हम हिंदुस्तानियों के हाथ में सिर्फ सांप की बीन ही नज़र
आती है। डॉक्टर्स, इंजीनीयर्स और साईं टिस्ट की गिनती में जनाब हम सिर्फ
दो मुल्कों से पीछे हैं। ये थी दिमाक
की बात। अब करते हैं ताकत की बात। दुनिया में सबसे पहली फौज हमारी है। आपके आगे फिर भी झुक के प्रणाम करता हूँ
क्योंकि हम किसी को अपने से छोटा या कमजोर नहीं समझते। नमस्कार!!
इस प्रकार ‘नमस्ते लंडन’ सिनेमा के माध्यम से यह भी दर्शाने
का प्रयास किया गया है कि वर्तमान भारत प्रत्येक क्षेत्र में वैश्विक धरातल पर
अन्य देशों के प्रत्याशी के रूप में खड़ा है।
हर सतह पर समर्थता का परिचय देता रहा है।
स्वतन्त्रता का 69 वाँ वर्षगांठ मनाता भारत का मनोबल आज बहुत दृढ़ है। ‘नमस्ते लंदन’ एवं ‘पूरब-पश्चिम’सिनेमाएँ
भारत का गौरवपूर्ण पहलू का प्रस्तुतीकरण है। किन्तु भाषा में हिंदीतर शब्द अधिक और भाषा का
स्तर फिसलता दृष्टिगोचर होता है।
वर्तमान सिनेमाओं में तकनीकी एवं
दृश्यात्मकता को अधिक महत्व दिया जा रहा है।
तकनीकी और वैज्ञानिक पद्धतियों के आधार पर वैश्विक धरातल पर मूल्यांकन या
तुलना किया जा रहा है। हलही में बनी
फिल्में जैसे – ‘बाहुबली’, ‘क्रिश’, ‘मक्खी’, ‘लाइफ ऑफ पै’ आदि उक्त तथ्य के अच्छे उदाहरण हैं।
ऐसी सिनेमाएँ असहज और अवास्तविक होते हैं।
मानवेतर शक्तियों द्वारा असंभव कार्य करने में सक्षम होने वाले मनुष्यों की
भाषा तकनीकी या यान्त्रिकी होती है। कुछ
शब्द तो केवल उस पात्र के लिए ही सृजित की गई होती है जिसका शब्दकोश में अर्थ नहीं
मिलता। हॉलीवुड के फिल्मों में भी ऐसी
फिल्में यदाकदा बनती ही रहती हैं। जैसे – ‘अवतार’, ‘एलियन’, ‘हैरीपॉटर की कहानियाँ ’, ‘पायरेट्स ऑफ केलीबीन’
के सभी भाग जैसी फिल्में अवास्तविक होते हुए भी अपनी दृश्यात्मकता के कारण
रोमांचित बन पड़े हैं। इनमें भी भाषा की
गरिमा का कोई महत्व नहीं होता। मात्र
सम्प्रेषण करना होता है।
कुछ सिनेमाएँ राष्ट्रीय धरातल पर बहुत सफल
होती हैं, किन्तु वैश्विक धरातल पर अपनी जगह नहीं बना पाती क्योंकि उनमें निहित
संकल्पना विदेशी प्रेक्षकों को रंजित नहीं कर पातीं। मुहावरों और कहावतों की भाषा हिंदीतर प्रांत के
लोगों को कठिनाइयों में डाल देती है। जैसे
– "घर में जवान बेटी सीने पे पत्थर की सील की तरह होती है, हमारे जाने बिना यहाँ परिंदा भी पर नहीं मार सकता"
आदि। कुछ फिल्मों को समझने हेतु प्रेक्षक
को उस परिवेश की सभ्यता, संस्कृति,
रहन-सहन, जाती-पाती, ऊँच-नीच, परंपरा और मानसिकता जैसे कई पहलुओं का जानकारी होना अवश्यंभावी हो जाता
है अन्यथा संवाद की गंभीरता, भाषा का घुमाव, वाक्यांश एवं अभिव्यक्ति नहीं समझ पाते हैं। ऐसी फिल्म से उन्हें रसानंद प्राप्त नहीं
होता। यथा –
‘स्वदेश’ सिनेमा में मोहन भार्गव नामक एक भारतीय नौजवान, जो
नासा में वैज्ञानिक है, भारत आता है और अपने देश की दयनीय
स्थिति को देखकर बहुत दुखी होता है। वहाँ
कुछ दिन रहने के उपरांत उसे वहाँ की जनता से लगाव हो जाता है। वह गाँव में बदलाव लाना चाहता है। गाँव के गरीब बच्चों को शिक्षित कराना चाहता है
किन्तु गाँव के पंचों की भी अपनी जिद होती है।
यथा –
"
पंच : जो कभी नहीं जाती, उसी
को जाती कहते हैं।
मोहन : जो सदियों से आ रही है, तो
जरूरी नहीं है कि वह सही है। मैं सिर्फ वही
कह रहा हूँ जो आप लोगों के बीच कुछ दिन रहकर मैंने महसूस किया है। देखा वो ये कि हम लोग सिर्फ आपस में लड़ते रहते
हैं। जबकि हमें लड़ना चाहिए अशिक्षा के
लिए। बढ़ती आबादी भ्रष्टाचार के
खिलाफ। हममें से हर कोई हर रोज गलियों में
सड़कों पे कहीं न कहीं ये कहता रहता है कि इस देश का कुछ नहीं होने वाला। यह देश बरबादी की ओर बढ़ रहा है। हम सिर्फ यही कहते रहें तो सचमुच यह देश एक दिन
बर्बाद हो जाएगा। उसके लिए आपको कुछ करना
होगा, आपको भी।
सिर्फ पंचों को नहीं। आप सब गाँव
वालों को आप अपनी समस्याओं के लिए इन पंचों को दोषी ठहरा रहें हैं लेकिन उनकी जगह
पर आकार आप भी वही करेंगे। और यह बात मुझ
पर भी लागू होती है। दलित ब्राह्मण को दोष
देते हैं। ब्राह्मण कहते हैं कि दलित उनकी
जाती का भ्रष्ट कर रहें हैं। लुहार और
कुम्हार लाला के कर्ज को दोष देते हैं।
जमींदार किसान को दोष देते हैं लेकिन उसका हक नहीं देते हैं तो हम महान
कैसे हो गए? गाँव
में दिक्कतें हैं तो हम सरकार की ओर उंगली उठाते हैं। वो किसी और की ओर उंगली उठाते हैं। हम सब किसी और को दोष दे रहें हैं जबकि सच्चाई
यह है कि हम सभी दोषी हैं क्योंकि समस्या हम खुद ही हैं। मैं, आप हम सब....
मैं सिर्फ इतना जानता हूँ कि एक
व्यक्ति जुलाहा जिसने खेती-बाड़ी करनी चाही, वह अपने परिवार को दो वक्त की
रोटी नहीं दे सकता। वह अपने बच्चों को
शिक्षा नहीं दे सकता। जो भूख से मरता देख सकता है....."
इस प्रकार गंभीर समस्या का चर्चा या
संवाद हो रहा हो तो गैर-भारतीय जिन्हें जमींदारी पद्धति, गाँव का परिवेश, परंपरा,
जलवायु संबंधी जैसे तथ्यों की जानकारी नहीं होती, उन्हें इस
प्रकार की फिल्में बोरियत उत्पन्न करती है।
फिर भी कुछ फिल्में, वैश्विक स्तर महत्वपूर्ण होते
हैं, जिन्हें प्रांतीय भाषाओं में अनुवादित कर देते हैं या
फिर अनुवादित कथोपकथन तत्काल पटल पर प्रस्तुत हो रहा होता है। वर्ष 2004 मैं बनी ‘स्वदेश’ राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित थी किन्तु अन्य व्यावसायिक फिल्मों की
तरह व्यापार कर पायी यह कहना कठिन है।
पिछले दो दशकों में, विदेशी बाल कार्टून सिनेमाएँ जैसे – ‘लाईन किंग’ (1,2), ‘मेडागास्कर’ (1,2,3), ‘नीमो’, ‘टिनटिन’, ‘ब्रेव’, ‘कुम्फू पांडा’ (1,2), ‘कार्स’, ‘प्लेन्स’ आदि। बहुत प्रचलित हुईं और वैश्विक धरातल पर एक विशेष जगह बनाई। इनके अलावा हॉलीवुड में ऐसे मानवेतर शक्तिशाली पात्र ‘ही-मैन’, ‘बैट-मैन’, ‘स्पाइडर-मैन’, ‘सुपर-मैन’, ‘आइरन-मैन’ आदि, जो अच्छे और गरीबों की मदद करते हैं, को प्रांतीय भाषाओं में अनुवदित कर प्रस्तुत की जाती है। जिनकी भाषा सर्वदा हल्की ही होती है। अंग्रेजी के कई शब्द ज्यों का त्यों प्रयोग कर दिया जाता है। उक्त सभी बच्चों की फिल्में वैश्विक धरातल पर अपना विशेष स्थान बनाएँ हैं। संसार के सभी बच्चे इन पत्रों से परिचित हैं। टेलीविज़न के क्षेत्र में भी कुछ पात्र जैसे ‘टॉम और जेरी’, ‘डोरेमोन’ , ‘बग्स-बनी’, ‘मिकी-माऊस’, ‘एंग्री-बर्ड्स’ आदि हिन्दी में या भारत के अन्य प्रांतीय भाषाओं में भी वार्तालाप करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार सिनेमा और दूरदर्शन का मंच वैश्विक धरातल पर हिन्दी तथा उक्त तथ्यों को पुष्टि करती है। विशेष रूप से बाल कथाओं का मंच पूरे विश्व का सार्वजनिक मंच बन चुका है।
तकनीकी और वैज्ञानिक क्षेत्र में विकास
होने के उपरांत हॉलीवुड के द्वारा सृजित कुछ अद्भुत और अवास्तविक दृश्य एवं पात्र
(अवतार) इतने प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत किए गए हैं कि उनके दृश्य
वास्तविक लगते हैं। इस प्रकार का प्रयोग
अब हिन्दी फिल्मों में भी (रोबो) यादकदा दृष्टिगोचर होने लगे हैं। गाँव और छोटे शहरी उन सिनेमाओं से आनंद प्राप्त
करते हैं। किन्तु महानगरीय वासी मूल
सेनेमा को ही देखने में इच्छुक होते हैं।
ये लोग फिल्मों की तुलना और मूल्यांकन करने में सक्षम होते हैं। इसलिए ऐसे दर्शकों को फिल्मों की कसौटी के रूप
में मान सकते हैं।
¶ “शरम
यहाँ का सबसे अनमोल गहना है” (पूरब और पश्चिम,
1970)
¶ “जो
डर गया , समझो मर गया”
(शोले, 1975)
¶ “डॉन
को पकड़ना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है”
(डॉन, 1978)
¶ “जाओ
उस आदमी का साइन लेकर आओ जिसने मेरे हाथ पर ये लिख दिया था... उसके बाद..... उसके
बाद भाई तुम जिस कागज़ पे कहोगे, मैं उस पर
साइन कर दूंगा” (दीवार, 1979)
¶ “हम
भी वो हैं, जो कभी किसी के पीछे नहीं खड़े
होते हैं। जहां खड़े हो जाते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है” (कालिया, 1981)
¶ “आई
केन वाक इंग्लिस, आई केन लॉफ इंग्लिस बिकाज
इंग्लिस ईस ए फन्नी लैंगवेज़” (नमक हलाल, 1982)
¶ “मोगेम्बो
खुश हुआ” (मिस्टर इंडिया, 1987) आदि।
¶ कोई
बात नहीं सेनोरीटा कोई बात नहीं बड़े-बड़े देशों में ऐसी छोटी-छोटी बातें होती रहतीं
हैं। (दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे, 1995)
उक्त
सिनेमाओं के अलावा कुछ अत्यंत मनोरंजक सिनेमाएँ ऐसी भी हैं, जिनमें उद्देश्य की जगह अभिनय को महत्त्व दी गई। ‘चीनी कम’, ‘लांच बाक्स’,
‘निशब्द’, ‘पीके’, जो सामान्य मानवीय प्रवृत्तियों का ही प्रस्तुतीकारण है। प्रेक्षकों में थोड़ा-सा कुतूहल उत्पन्न कर ढाई
से तीन घंटों तक बांधकर रखने वाले उत्तम सिनेमा के दायरे में रखा जा सकता है। इनमें ‘निशब्द’ का विषय अनूठा था। यह फिल्म
साहसिक एवं निर्भीक अभिनय के लिए वैश्विक धरातल पर एक प्रयोग माना जा सकता
है। उसी प्रकार ‘पीकू’, एक बुजुर्ग की कब्ज की बीमारी को आधार बनाकर हास्य-व्यंग्य के रूप में
परोसा गया। समकालीन व्यवस्था तंत्र, तर्क-वितर्क ही दर्शकों को बाँधें रखने में सफल रहा।
निष्कर्ष
रूप से यह कह सकते हैं कि वर्तमान सिनेमा वैश्विक धरातल पर अवश्य सफल हुई है
किन्तु भाषाई स्तर के कसौटी में सफल नहीं हो पा रही है। यह भी झूठ नहीं है कि सिनेमाओं के द्वारा
हिन्दी की जो प्रचार प्रसार हुई है, शायद ही
किसी और माध्यम से हुई होगी। हिंदीतर
प्रान्तों में हिन्दी स्टाइल या फैशन के लिए भी सीखते हैं। टूटी-फूटी हिन्दी ही सही किन्तु बहुत प्रेम से सीखते
हैं और उनका प्रयोग करते हैं। सभी को
विदित है कि सिनेमाएँ केवल व्यापार हो गईं हैं।
समाज और समाजोद्धार का कर्तव्य के बारें में सोचेंगे तो वही बात हो जाएगी
कि "घोडा घास से दोस्ती कर लेगा तो खाएगा क्या"। बुद्धजीवी सिनेमाएँ देखने सिनेमाघर नहीं जाते
क्योंकि वे ही समझते हैं कि वे समाज के उत्तरदायी हैं। समाज का संस्करण उनके साहित्य और व्यक्तित्व से
है। अगर वे मनोरंजन के लिए सिनेमाएँ देखते
भी हैं, तो वो, जो भाषाई रूप से और
भावनाओं में उच्च हैं। इसलिए वे आज भी पुरानी फिल्में ही देखना पसंद
करते हैं।
जयहिंद
जयहिंदी