नेता के जीतते ही सभी लोगों ने अपने-अपने
क्षेत्र के बैंकों में धावा बोल दिया। चाहे
फिर वह अमीर हो या गरीब, जिस किसी का भी
बैंकों में ऋण था, जमीन गिरवी पर रखी पड़ी
थी, वे सभी लोग बैंकों में जा धमके। सभी बैंकों में आफत होड सी लग गईं। विशेष रूप से ग्रामीण बैंकों में ऐसा दृश्य दृष्टिगोचर
होता है। कर्मचारियों ने सभी लोगों को
समाझाया कि मंत्री तो जीत गाए, किन्तु बैंकों
में अभी किसी भी प्रकार के आदेश जारी नहीं किए गए हैं,
सूचना मिलते ही सभी काम प्रारम्भ कर दिए जाएंगे।
सभी के लिए एक सा न्याय किया जाएगा। अब ऐसा लग रहा था जैसे नेता की कृपा से बैंकों पर
जनता का अधिकार सा हो गया। परिणामस्वरूप अब
सभी बैंकों के कर्मचारी एक बीरदारी के हो गए और जनता दूसरी बीरदारी के।
दूर दराज छोटे से गाँव के गरीब किसान भी अत्यंत
अपेक्षा से प्रतीक्षा करने लगे। प्रतिदिन गाँव
के चौपाल में बैठकर सरकार, बैंकों और ऋणमुक्ति
के बारे में चर्चा करते और उम्मीद जताते। समाचार
पत्र पढ़ने वाले लोगों से रोज पूछते कि बैंकों के ऋण को लेकर सरकार क्या सोच रही है? प्राप्त जानकारी की जांच-पड़ताल बैंकों में जाकर
करते थे। वहाँ के कर्मचारियों पर अपने
प्रश्नों का बौछार कर देते। बैंकों में
क्लर्क एक ही तथ्य को, रोज बारंबार प्रत्येक
व्यक्ति को अलग-अलग ढंग से समझा-समझाकर थक जाते थे और दिन के अंत में सिर उठाए
बिना इशारों से ही बताकर बात को वहीं समाप्त कर देते थे। किन्तु गंवार कोई भी बात इतनी जल्दी नहीं
मानते। किसी बात को लेकर अगर अड़ जातें हैं तो बस पीछे
ही पड़ जाते हैं। चर्चा करते हुए परस्पर समाचार
आदान-प्रदान करते रहते हैं, किन्तु सब जानते
हुए भी पुनः काउंटर में आकार ऐसे पूछते जैसे पहली बार पूछ रहें हों। कर्मचारी की हर बात हर व्यक्ति आपने कान खड़े कर,
आँखें गाड-गाड कर उसके मुँह से निकलते हुए प्रत्येक शब्द को ध्यान से सुनते। सुनकर भी उसी सवाल को फिर से किसी और ढंग से
फिर पूछने लगते। चाहे फिर वह गंवार हो या
फिर पढ़ा-लिखा।
उसी गाँव के बैंक में सुरेश नामक एक अवकाश
प्राप्त सैनिक एक क्लार्क के हैसियत से छः महीने पहले कार्यग्रहण किया था। बैंक के चारों ओर हरियाली ही हरियाली थी। खेत में काम करने वाला किसान बैंक के दरवाजा
खुलता देख काम वैसे ही छोड़कर आ जाता था। मिट्टी
के हाथों से ही थूक लगा-लगाकर नोटों को गिनता और मोड-मोड कर निचोड़ कर अपने कमर में
खोंस लेता था। न कोई कतार न कोई ढंग। सुरेश को यहाँ के लोगों के अव्यवस्थित पद्धति
और बैंकों में उनका व्यवहार देखकर आश्चर्य हुआ।
गाँव के लोग अधिक मिलनसार और सरल थे। उनके उम्र के अनुसार वे लोग सुरेश से अपना
संबंध जोड़ने लगे। कोई भैया कहता तो कोई
बेटा, कोई मामा बोलता तो को कोई दोस्त। सुरेश को भी उनके लिए काम करना अच्छा लग रहा था। गरीब किसान और साधारण जनता सुरेश से परिचय पूछा
और अपना परिचय दिया। अगली बार उसके लिए
अपनी हैसियत के अनुसार भेंट भी लेकर आए।
सुरेश कुवांरा होने के कारण कुछ नहीं लिया। उस गाँव के लोग बहुत जल्द ही उसके मित्र बन गए। गाँव वालों की नादानी और जल्द ही किसी पर
विश्वास कर लेने की प्रवृत्ति को देखकर सुरेश को उन पर दया भी आती थी। वही कारण था कि इन लोगों ने नेता की बात पर भी
विश्वास कर लिया और अब बैंकों की चक्कर काट रहें हैं।
उस गाँव में गरीब किसान एक ओर तो लाखों और
करोड़ों में सौदा करने वाले व्यापारी,
जमींदार और ब्राह्मण दूसरी ओर। वे साधारण
जनता और गरीबों की कतारों में खड़े नहीं होते थे,
बल्कि सीधा मैनेजर के कमरे में बिना अनुमति के ही पहुँच जाते थे। मैनेजर ही स्वयं उठकर उनका स्वागत किया करता
था। चूंकि ये लोग पुराने ग्राहक और उनके
बैंकों में इनकी जमा पूंजी थी, कि वे केवल अपनी
पूंजी ही नहीं बल्कि बैंक एवं बैंक मेनेजर पर भी अपना हक समझते थे। सुरेश को नया आया देखकर एक ब्राह्मण ने सुरेश
का नाम पूछा। सुरेश ने अपना सिर उठाया और 'सुरेश'
कहकर अपना काम करने लगा। उन्होंने पूरा
नाम बताने को कहा ताकि उसके जाति का पता चल सके। सुरेश ने कहा 'सुरेश
चंद्र भारद्वाज'। अच्छा तो तुम भी अपने ही हो। चलो अच्छा हो गया। सुरेश ने पुनः अपना काम करने लगा। उन्होंने फिर से कहा – "आज राम मंदिर में
राम जी की विशेष पूजा रखी गई है, हो सके तो आ
जाना।" वे इस्त्री किए हुए खादी के
कपड़े, सोने की अंगूठियाँ,
गले में सोने से गुथीं हुई रुद्राक्ष की माला आदि पहने हुए थे। सुरेश 'हाँ'
के रूप में सिर हिलाया और पुनः नजर झुकाकर रूपये गिनने में व्यस्त हो गया।
सरकारी आदेश जारी हो गए। बैंकों में ऋणमुक्त का काम ज़ोरों-शोरों से शुरू
हो गया। सारा टीम ओवर टाइम करने लगे। वैसे तो बैंक चार बजे खत्म हो जाता है किन्तु
सरकार ने उन्हें अंतिम समय निर्धारित कर दिया था।
इसलिए काम करते-करते सभी कर्मचारी रात के आठ,
नौ बजे तक भी रह जाते थे। बैंक मेनेजर और
कुछ सीनियर कर्मचारी तो बिना किसी परेशानी के समय पर चले जाते थे किन्तु ईमानदारों
की कमी भी नहीं थी।
गाँव वाले अब ऋणमुक्त सूची में अपना नाम
देखने के लिए रोज आने लगे। लगभग सारा गाँव
रोज बैंक में जाकर खड़ा हो जाता। सिनेमा
घरों से भी अधिक भीड़ रहने लगी। गाँव के
प्रतिष्ठित और समृद्ध लोग सीधे मैनेजर के पास चले जाते और अपना काम निकाल
लेते। जमींदार और समृद्ध व्यक्ति खुश हैं
क्योंकि इन्होंने जो ऋण किया था, वह सरकार ने माफ
कर दिया। दस से बीस लाख तक ऋण का माफ हो
जाना उन सबके लिए बहुत बड़ी बात थी। उन्हें
देखकर गरीब किसान और दूसरों के जमीन पर काम करने वाले किसान भी खुश थे क्योंकि जब
जमींदारों और अमीर लोगों का ऋण ही सरकार ने चुकता कर दिया है,
तो उन्हें हर हाल में सरकार मदद करेगी।
उसी गाँव की एक गरीब महिला अनुसूया को भी
लोगों की बातों से पता चला कि सरकार सबको मदद कर रहा है। लिया गया उधार चुकता हो रहा है। वह बहुत खुश हुई। बैंक में जाकर कर्मचारियों से अपना नाम बताती
और सूची में देखने को कहती। जवाब नहीं
मिलने पर वहाँ पर खड़े हुए लोगों से सूची में अपना नाम ढूँढने को कहती। दो दिनों तक वह घूमती रही किन्तु उसका नाम न
सूची में था और न ही भीड़-भाड़ में कर्मचारी की बातें वह समझ पा रही थी। तीसरे दिन वह कर्मचारी भड़क गया और उस पर बरस
पड़ा। 'क्या
समझती हो तुम? हम क्या तेरे अकेली के
लिए बैठे हैं, कि तू आए तो तेरी आरती
उतारकर पहले तेरा काम करूँ? तेरे पैसे आएंगे
तो तुझे हम दे देंगे। हम नहीं लेंगे। समझी?
अब तू चुपचाप एक जगह बैठ जा और हमें तंग मत कर।
हमें अपना कम करने दे। देख तो रही
हो न कितने लोग कतार में हैं? हम कर रहें हैं
न अपना काम? हमें डिस्ट्रब मत कर।" सभी कर्मचारियों ने एक बार उसे देखा किन्तु सभी
व्यस्त होने के कारण अपना-अपना काम जारी रखा।
अनुसूया फिर कुछ बोलना चाहा किन्तु सिर झुकाकर वहाँ से चली गई। सभी लोगों ने अपना काम छोड़कर उनकी तरह देखते रह
गए किन्तु किसी ने भी अनुसूया का साथ नहीं दिया।
सभी को अपना-अपना काम निकालना था। वह
रोज आती किन्तु बिना किसी से कुछ बात किए एक कोने में बैठ जाती। ऐसे दो महीने बीत गए।
दो महीनों के बाद बैंक में लोगों का ताँता
थोड़ा-थोड़ा कम होने लगा। अब केवल वे ही बैंक का चक्कर लगाते हैं जिनका नाम सूची में
नहीं दिया गया है। उसकी यह उम्मीद थी कि
अगर अकेले में पूछे तो शायद उसका जवाब मिल जाएगा।
किन्तु ऐसा नहीं हुआ। मैनेजर और
वरिष्ठ कर्मचारी के जाते तक वहीं बैठी रहती और उनसे भी जवाब न पाकर मायूस होकर वापस
चली जाती। अनुसूया फिर भी आती थी किन्तु वह
इस बार अपने ऋण के बारे में पूछने के बजाए कर्मचारी द्वारा अपना नाम बुलाए जाने की
प्रतीक्षा करती रही।
एक दिन मालती ने सोचा कि अगर वह बैंक के बंद
होने तक बैठ जाएगी तो उसका भी निदान किया जाएगा।
एक दिन वह रात के आठ बजे तक बैठी रही।
बैंक के कर्मचारी एक-एक करके जाने लगे।
अनुसूया उठकर हाथ जोड़कर एक कर्मचारी से कहा - 'बाबू
जी .... वो सूची में....मेरा नाम...... '
कर्मचारी कम से कम उसकी ओर भी नहीं देखा और सुरेश की ओर इशारा करके कह दिया कि –
"उनसे पूछ.... वे बताएँगे" सुरेश भी कैश काउंटर को बंद करके बाहर निकाल
रहा था। बैंक में केवल सुरेश ही बचा
था। वह अपने काम में इतना व्यस्त था कि
उसने यह ध्यान नहीं दिया कि अनुसूया वहीं खड़ी है।
काम खत्म होने के बाद जब वह जाने लगा तो उसे देखकर वह दंग रह गया और उसने कहा
"माँ जी बैंक बंद हो गया है। कल
आना। इतनी देर से कोई बैंक आता है
क्या....." अनुसूया के आँख में आँसू आ गए और उसका गला रुँध गया। फिर भी वह मौका नहीं जाने देना चाहा। उसने पूछ डाला – "बाबू मुझे ये बताओ कि
सरकार ने मेरा ऋण माफ किया या नहीं?
मेरे सोने की चूड़ी तो वापस मिल जाएगा न?
जब गाँव में सभी किसानों को सरकार ने माफ किया है,
तो मुझ जैसे गरीब को तो पहले मिल जाना चाहिए।
देख बेटा मुझे पढ़ना नहीं आता।
मैंने सभी लोगों से सूची में मेरा नाम देखने को कहा परंतु किसी ने भी
ठीक-ठीक नहीं बताया। बेटा अब तुम बताओ न
मेरा नाम है कि नहीं? ये रहे उससे
संबन्धित सभी कागजात। भगवान तुम्हारा भला
करेगा बेटा।" कहकर उसने कुछ कागजात निकाल कर दिखाए। जिसमें लिखा था कि 3500 हजार रूपयों के लिए
उसने अपनी एक सोने की चूड़ी रखी थी।
उन्हें देखकर सुरेश ने अनुसूया से कहा – "देखो
माँ जी आप कल आना मैं जरूर कुछ करूंगा।"
अनुसूया हाथ जोड़कर कहती है – "बाबू जी कल,
कल करते हुए दो महीने बीत गए। आप का बहुत
भला होगा बेटा अब बता ही दो। सरकार ने
मेरा ऋण माफ नहीं किया होगा तो कोई बात नहीं।
कम से कम वही बात आप कह दोगे तो मैं बैंक नहीं आऊँगी। उसमें तुम क्या कर सकते हो?
मेरे आने-जाने के पैसे तो कम से कम बच जाएंगे।"
अगले दिन सुरेश पैसों के काउंटर में बैठा काम
कर रहा होता है। अनुसूया ढूंढती हुई सुरेश
के पास आ जाती है और कहती है - "नमस्ते बेटा.... मैं आ गई। आज मेरा काम हो जाएगा न?"
इतने में एक रईस जमींदार आता है और सीधे मेनेजर के कमरे में घुस जाता है। मैनेजर सुरेश को बुलाकर जमींदार को कुछ रकम
देने को कहता है। कैबिन से निकलकर सुरेश
पहले अनुसूया का ही काम करता है। सुरेश अपने
खाते में से 3500 रूपये सरकार के खाते में जमा कर देता है और अनुसूया का कंगन वापस
कर देता है। अनुसूया बहुत प्रसन्न होती है
और आशीर्वाद देकर चली जाती है।
देर हो जाने के कारण मेनेजर सुरेश को पुनः
केबिन में बुलाकर जमींदार के सामने ही कहता है कि दिया गया काम जल्दी करने का
प्रयत्न कीजिये। ये हमारे पुराने क्लाइंट
हैं। इनके काम में देर नहीं होना चाहिए। तब सुरेश निर्भय होकर कहता है - "मैं
लोगों की सेवा करने में विश्वास रखता हूँ,
पहले भी मैंने वही किया था और आज भी वही कर रहा हूँ और आगे भी करता रहूँगा।" और जमींदार की ओर देखकर कहता है –
"कृपया कतार में आकार अपनी रकम ले जाइए या फिर कतार में खड़े लोगों के जाने के
बाद आपको आपका रकम कील जाएगा।" सुरेश
पुनः अपनी जगह पर जाकर काम करने लगता है।