Saturday 10 January 2015

कबीर@मानवधर्म.कॉम


धर्म वह अनुशासन है जो मनुष्य को परिष्कृत होने में सहायक होता है।  जिन पद्धतियों को अपनाकर मनुष्य स्वयं और समाज का कल्याण करता है, उसे मानव धर्म कहते हैं।  भारत का सनातन धर्म इतना विशाल और व्यापक है कि इसके भीतर अन्य सभी धर्म विलीन हो जाते हैं।  इस धर्म को अपनाने वाले व्यक्ति निराडंबर एवं सामान्य दृष्टिगोचर होते हैं किन्तु इनमें  मनोबल बहुत ही दृढ़ और स्थिर होते हैं।  सम्पूर्ण समाज का संचालन करने की दक्षता इनमें कूट-कूट कर भरी होती है।   सभी क्षेत्रों में समृद्ध होकर भी समाज के लिए कुछ न करने वाला व्यक्ति समाज का शत्रु ही रहता।  मानवता को न जानने वाला व्यक्ति पशु-तुल्य है।  इसे जानकर भी उसका पालन नहीं करने वाला व्यक्ति अत्यंत हानिकारक होता है।  धर्म जानकर भी उसका पालन नहीं करने वाला व्यक्ति अधर्मी व्यक्ति से भी अधिक हानिकारक होता है और वही समाज को अधिक नुकसान पहुंचता है।  इसमें कोई संदेह नहीं। 
            समय के अनुरूप 'धर्म' शब्द के अर्थ में एवं इसकी परिभाषा में भी परिवर्तन आता गया।  धर्म के नाम पर कुछ अंश बढ़ते-घटते गए।  परिवर्तन समय की माँग भी है और स्वाभाविक भी।  किन्तु यह तथ्य सत्य है की वह किसी भी अवस्था में त्याज्य नहीं हो सकता।  वर्तमान युवा पीढ़ी धर्म, संस्कृति, सभ्यता जैसे अंश क्लिष्ट, भ्रमयुक्त और असाध्य मानते हैं।  इसलिए न वे उस दिशा में सोचना चाहते हैं और न किसी भी प्रकार का उत्तरदायित्व लेना चाहते हैं।  अपनी संस्कृतिक मूल्यों को निबाहने के बदले आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य संस्कृति को अपनाकर आपे कर्तव्यों से भागना, उनका त्याग करना आज की पीढ़ी के लिए सर्वसामान्य हो गया है।  आजकल अध्ययन के क्षेत्र में भी यही दृस्टिगोचर हो रहा है।  रटन और पद-क्रम की प्रक्रिया ने चिंतन और विचार करने की प्रक्रिया पर हवी हो गई है।   अध्ययन में निहित वास्तविक संकल्पना का अर्थ जाता रहा है।   
            किसी भी व्यक्ति के बाह्याडंबरों को देखकर उसके सांप्रदायिक धर्म आँका जा सकता है किन्तु उसमें निहित मानव धर्म का आंकलन तभी संभाव हो पाता है, जब वह सांप्रदायिक धर्म से ऊपर उठकर मानव कल्याण की संकल्पना करता है।  मानवता का सरोकार उसके मानसिक एवं उच्च विचारों का ध्योतक है, न कि बाह्य रूप या सांप्रदायिक आचार-व्यवहारों से।  मानवतावादी व्यक्ति समाज में अन्य समाजिकों के साथ ही मिलकर रहते हैं और समाज का उत्थान ही इनका परम लक्ष्य होता है।  ऐसे लोग परमार्थ के लिए मंदिरों, जंगलों व चार धाम के नाम पर दर-दर भटकने के बदले जन कल्याण में ही वह परमानन्द ढूंढ लेते हैं।  मानव की सेवा में ही माधव की सेवा का तथ्य जानते हैं।   वास्तव में भगवान तो मात्र एक संकल्पना है।  ब्रह्माण्ड को चलाने वाली एक शक्ति ।  शक्ति का तो लिंग निर्धारण भी नहीं किया जा सकता।  किन्तु मनुष्य का सरोकार इस भौतिक संसार से तो है।  भारतीय वेदान्त की मूल संकल्पना ब्रह्म सत्यम और जगत मिथ्या है।  इसका सारांश यह है कि शरीर अशाश्वत है और यह भौतिक जगत मिथ्या है।  किन्तु यह तथ्य भी सत्य है कि इस जगत में मनुष्य की संकल्पना या मनुष्य के अस्तित्व के बिना न ब्रह्म का अस्तित्व का ज्ञात होता है और न ही वेद-वेदांगों का।  किन्तु प्रत्येक युग में इतिहास साक्षी है कि समाज का कल्याण चाहने वाला व्यक्ति ही इहलोक में ही महान बना है।  भगवान माने जाने वाले राम, कृष्ण, भी पृथ्वी पर आकार ही अपना अस्तित्व बनाया।   आधुनिक युग के विवेकानंद एवं मदर थेरिसा आदि मानवतावादी के लिए प्रसिद्ध थे।  मध्य कालीन समय में कबीर बहुत ही प्रसिद्ध हुए। 
            संसार में सांप्रदायिक धर्म की संकल्पना भी मानवता और मानव के उत्थान को ही ध्यान में रखकर बनाया गया होगा।  कर्तव्य एवं नियम निश्चित किए गए होंगे।  भारत में 'हिन्दू धर्म' की संकल्पना आर्यों ने की।   वर्तमान समय में, भारत में कई सांप्रदायिक धर्म प्रचलित हैं, जैसे - मुसलमान धर्म, सिख धर्म, इसाई धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म आदि।  स्वतंत्र भारत में अन्य धर्म भी स्वतंत्र रूप से बस गए हैं।  इस संसार में भारत के अतिरिक्त कदाचित ही ऐसा देश होगा जहां असंख्य धर्म एक साथ रहते हों।  ये सभी सांप्रदायिक धर्म कई वर्षों से आपस में सहोदर भाव से रहते, और साथ-साथ चलते चले आ रहे हैं।  सहभातृत्व की भावना अगर भंग भी होती है, तो वो केवल असमर्थ सत्ताधारी व्यक्तियों के कारण ही।  भारत का धर्म ही इतना लचीला है कि मानवधर्म या मानव के उत्थान हेतु बनाए गए किसी भी धर्म को अपना लेता है।  इसमें कोई संदेह नहीं कि अन्य सांप्रदायिक धर्मों के विचार भी ऐसे ही उच्च रहे होंगे अन्यथा भारत में इतने वर्ष अपनी निरंतरता नहीं बनाए रख पाते।  हम भाग्यशाली और सम्पन्न हैं कि हमारे सम्मुख बेहतरीन जीवन के लिए इतने विकल्प हैं।  इस मानव जीवन को धन्य मानते हैं क्योकि हम पशु-पक्षियों से भिन्न हैं और मानव धर्म का अर्थ समझते हैं।    
            भारतीय आख्यान साक्षी हैं कि भारतीय संस्कृति में 'जाती परक' धर्म को महत्व नहीं दिया जाता था।  उपर्युक्त कहे गए तथ्यों के अनुसार यह भौतिक संसार और यह शरीर शाश्वत नहीं है किन्तु हम अपने इंद्रियों से और मन से इस भौतिक संसार का अनुभव करते हैं, स्पंदित होते हैं।  इसलिए हमें सर्वदा शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रहना आवश्यक हो जाता है।  संसार को भी यथासंभव स्वस्थ एवं सुरक्षित रखकर अगली पीढ़ी को सुपुर्द्ध करना अनिवार्य भी है और आवश्यक भी।  हमें ऐसा कोई अधिकार प्राप्त नहीं कि हम उनका दुरुपयोग करें और अपनी अगली पीढ़ी को दूषित संसार प्रदान करें, जिसमें उनका जीना दूभर हो जाए।  सद्व्यवहार ही सभ्यता है, संस्कार है और संस्कृति भी।  समाज में जन्मे प्रत्येक नागरिक अपने अधिकार के साथ-साथ कर्तव्यों का भी स्मरण रखना चाहिए।  यही तथ्य निम्न कथा से स्पष्ट होता है।  यथा -
            एक बार आदिशंकराचार्य भिक्षाटन करते हुए एक गरीब विधवा के घर पहुँचते हैं।  वह औरत बहुत ही आनंदित होकर कुछ लाने के घर के भीतर दौड़ती है किन्तु कुछ न पाकर दुखी हो जाती है किन्तु उसे स्मरण हो आता है कि उसके पास उसके घर के आँगन के आँवले के पेड़ से झडे कुछ आंवले रखे हैं।  वह उन्हीं को ले जाकर भिक्षापात्र में डाल देती है।  तदुपरान्त शंकराचार्य भिक्षा हेतु अगले घर में जाते हैं, और वे देखते हैं कि उस घर का मालिक उनके जैसे कई अन्य ब्रह्मचारियों को दोनों हाथों से दान कर रहे हैं।  शंकराचार्य उससे दान लिए बिना ही लौटने लगते हैं।  ब्राह्मण दौड़कर शंकरचार्य के पास जाकर, हाथ जोड़कर दान लिए बिना जाने का कारण पूछता है, तो शंकराचार्य कहते हैं कि – "जब तुम्हारे पड़ोसी के पास खाने के लिए कुछ नहीं है और तुम्हारे पास दोनों हाथों से लुटाने के लिए इतना अनाज उपलब्ध है, तो इसका अर्थ यही है कि तुमने पाप का संग्रह [खाद्य सामाग्री] किया है।  इसलिए तुम म्लेच्छ के समान हो।  मैं एक म्लेच्छ से पाप [भिक्षा] में नहीं ले सकता।  मुझे पाप की दक्षिणा नहीं चाहिए।" इस प्रकार शंकरचार्य छुटपन में ही समझ गए थे कि अधर्मी ही म्लेच्छ होते हैं चाहे फिर वे किसी भी कुल, वर्ग या वर्ण में जन्मे क्यों न हो।  
            कबीर का भी यही मानना है कि मानवता का अर्थ समानता, सार्वभौमिकता है।  'वसुधैव कुटुंबिकम' है।  जिसका परम लक्ष्य मिलकर समस्याओं का समाधान करना,  मिलजुल कर व्यक्तिगत और समाज के उत्थान में भागीदार बनाना, पर्यावरण की रक्षा करना, अन्य आध्यात्मिक और सांप्रदायिक धर्मों का सम्मान करना, मिलजुलकर उत्सव मनाना, दूसरों की भावनाओं को समझना, आपसी समस्याओं का शांति के साथ समाधान ढूँढना, निस्वार्थ बनना, पराया धन और असामाजिक कार्य न करना, स्थिति का लाभ न उठाना आदि मानवता के लक्षण हैं।  अनैतिक संबंध बनाना, असामाजिक कार्यों में साझेदारी,  दूसरों की आवश्यकताओं और कमजोरियों का लाभ उठाना, परिश्रम के बिना परिणाम की अपेक्षा करना, आरक्षण के नाम समाजिकों में ऊँच-नीच की भेद-भावना उत्पन्न करना, धर्म के नाम पर मांसाहारी को शाकाहारी या शाकाहारी को मांसाहारी बनाने की चेष्टा करना, आदि सार्वभौमिक समता के बाधक हैं। 
            जन्म लेने के बाद कुछ अवधि तक शिशु माता-पिता या अन्य व्यक्तियों पर आश्रित होते हैं और प्रारंपरागत रूप से कुछ संस्कार सीखते हैं।  किन्तु कुछ समय पश्चात वे समाज में कदम रखते हैं और व्यक्तिगत रूप से स्वतंत्र हो जाते हैं; समाज से बहुत कुछ सीखते हैं ।  स्वतंत्र होने का अर्थ यह नहीं की वे समाज में अपनी इच्छानुसार अनैतिक या असामाजिक कार्य करे।  इसका अर्थ यह है कि अब वह समाज के उत्थान में भागीदार होने में सक्षम है।  नकारात्मक कार्य करने के विषय में कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र नहीं हो सकता चाहे फिर वह किसी भी स्थायी का क्यों न हो।  इतना ही नहीं वह अपने कृत्यों का उत्तरदायी भी होता है।
            यह सृष्टि कई असमानताओं से निर्मित है, किन्तु यह अत्यंत सुंदर है।  छायावाद के काव्यों में उनका सुंदर प्रस्तुति हमने देखा है।  समाज भी कई भौतिक असमानताओं से निर्मित है।  इसमें रहने वाले सामाजिकों में मानसिक, शारीरिक और आर्थिक असमानताएँ भी दृष्टिगोचर होती हैं।  उन्हीं असमानताओं को राजनीति बनाकर व्यापार करना अमानुषिक है।   क्या राजनीति का यही उद्देश्य होता है? असमानताओं को संतुलित करने का भार पूरे समाज पर है केवल सात्ताधारियों पर नहीं।  अगर समाज के सभी लोग भाईचारे से भागीदारी से स्वयं का उत्तरदायित्व निभाने लगेंगे, तो सत्ताधारी लोग भी गलत करने से पहले सहश्रों बार विचार करेंगे।  किन्तु पूरा का पूरा दायित्व उनपर छोड़कर अकर्मण्य-सा हाथ धरे बैठ जाएँ, तो स्वाभाविक है कि वह अपने सुविधानुसार कार्य करेगा।  समाज के कर्तव्यों को नेता के सुपुर्द्ध करके मुक्त होना स्वयं के अधिकारों का खोना है।  और अधिकारों को खोना जीवन को खोना है।   यह स्पष्ट है कि जहाँ कर्तव्य होता है वहीं अधिकार भी होता है।  स्वयं में सामर्थता होगी तो असमर्थ व्यक्ति नायक बनने का  ही नहीं सकता।            
            मानव धर्म का अनुसरण करने के लिए किसी भी व्यक्ति को अध्ययन कौशल या उपाधियों की आवश्यकता नहीं होती।  मूल प्रवृत्ति मानवता की होनी चाहिए।  दूसरों की स्थिति को समझकर यथासंभव उनका सहायता कर पाना एक परम तत्व है।  इस तथ्य का जीवंत प्रमाण हैं, मध्ययुगीन के महान संत 'कबीर'।  "मासि कागद छूओ नाहीं, कलम गही नाहीं हाथ" कहने वाले कबीर यह भी कहते हैं कि –
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर  प्रेम का, पढ़े  सो पण्डित होई॥
            वर्तमान समय में पोथियाँ केवल धनार्जन के साधन हैं।  आज की पीढ़ी पोथियाँ पढ़ने के उपरांत अहंकारी बन जाते हैं, संस्कार तो ऐसे गायब हो जाता है जैसे गधे के सिर से सींग। किन्तु कबीर के उच्च विचार हिमालय के जैसे अटल और चिरंतन है।  गांगा रूपी दोहे प्रत्येक युग में निरंतर जन-मानस के पटल में प्रवाहित होते ही रहेंगे और सहृदय पाठक उनसे पुनीत होते रहेंगे।  इसका कारण यह है कि इनके दोहों की भाषा सरल और अनुकरण के लिए साध्य हैं। 
            आज का समाज इतना भौतिकवाद हो गया है कि सरल और सामान्य तथ्य को भी नहीं समझना चाहते।  लाभ हीन आचरण को व्यर्थ मानते हैं।  अर्थप्राप्ति को दृष्टि में रखकर क्लिष्ट और अप्रिय कार्य भी करने के लिए तत्पर हो जाते हैं।  'दूर के ढ़ोल सुहावने' कहावत के अनुसार आज की युवा पीढ़ी विलियम शेक्सपियर, एडमंड स्पेन्सर, माइकल ड्राइडन, समयोल डेनियल आदि विदेशी साहत्यकारों के बारे में चर्चा करना, शिक्षा ग्रहण करना और उनकी महानता का बखान करना एक फैशन समझते हैं।  किन्तु एक और कहावत 'पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर' के अनुसार अपनी संस्कृति और भारतीयता की आत्मा को आत्मसात किए बिना दूसरों की संस्कृति जान पाना असंभव है।  इनका जीवन भी ऐसा ही जो जाएगा जैसे धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का।   
            हमें विदित है कि सैद्धान्तिक आलोचना में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का महत्त्वपूर्ण योगदान है।  उन्होंने अपनी आलोचना में लोकमंगल और लोकपक्ष को महत्त्व देते हुए तुलसीदास और कबीर को जगह दी।  लोकपक्ष से सम्बद्ध न होने के कारण उन्होंने सूरदास को भी जगह नहीं दी।  इस तथ्य से हमें यही विदित होता है कि समाज का हित न कर पाना असामाजिक कार्य तो नहीं, किन्तु इससे केवल व्यक्तिगत प्रयोजन होगा है सामाजिक रूप से नहीं।   
            'कबीर' के अनुसार मानवता का अर्थ केवल यह नहीं है कि एक व्यक्ति के प्रति दूसरा व्यक्ति कैसा व्यवहार करे, बल्कि यह भी है कि स्वयं की मन की भावना इतना उच्च हो कि यह भावना सहज ही दूसरों में भी जागृत हो जाए।  एक मनुष्य होने के नाते इन तथ्यों के लिए कोई विशेष नियम बनाने और उनका पालन अनिवार्य और बाध्य बनाया जाना बहुत ही लज्जाजनक बात है।  कबीर के अनुसार मन की शुद्धता शिक्षण से नहीं आती बल्कि आचरण और साधना से आती है।  यथा -  
दिन भर रोजा रहत है, रात हनत है गाय।
यह तो खून वह बंदगी, कैसे खुसी खुदाय॥
            मानवता का अनुसरण करने वाले व्यक्ति सोच-विचारकर या योजनानुसार अपनी बात को नहीं रखते बल्कि वे सत्य, न्याय और उचित को ध्यान में रखकर अपने कार्याचरण करते हैं।  प्रतिष्ठा के लिए वे अपने विचार नहीं गढ़ते बल्कि अपने विचारों से ही वे स्वयं प्रतिष्ठित हो जाते हैं।  ऐसे व्यक्तित्व वाले लोग अक्सर क्रांतिकारी लगते हैं।  सच्चाई का बखान करना क्या क्रांति से कम है? परम्पराओं के विरुद्ध जाना क्रांति नहीं बल्कि सामाजिक कल्याण हेतु, नई परंपरा के निर्माण करने में सही तर्क दे पाना क्रांति है।  क्रांति 'अच्छे बदलाव' का द्योतक है न कि असामाजिक कार्यों के लिए। 
            समाज में सुधार करना या नेतागिरी करने की प्रवृत्ति फक्कड़ और मस्तमौला कबीर में नहीं थी।  किन्तु वे समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरूपता को अवश्य निकाल फेंकना चाहते थे।  ऐसी प्रवृत्ति रखने वाले व्यक्ति स्वतः ही सुधारक लगने लगते हैं।  वास्तव में कबीर भी उस समय के समाज में व्याप्त अपने जैसे अन्य उत्पीड़ितों की सहायता करना चाहते थे।  उनकी वाणी में जीवन सत्य को सहज ढंग में प्रस्तुत करने की क्षमता कूट-कूट कर भरी थी।  उन्होंने समाज में रहने वाले ढ़ोंगी, पाखंडी, हठवादी और मिथ्याडंबर करने वालों पर प्रहार किया।  इसीलिए इनके दोहे तीखे और व्यंग बन पड़ें हैं।  यथा –
सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी, ओढि कै मैली कीनी चदरिया।
दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया॥
            कबीर इस तथ्य को जानते थे कि सामाज का कल्याण एक व्यक्ति से साध्य नहीं होता।  समाज में बसे सामाजिकों की मानसिकता में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।  इस बदलाव के लिए वे निरंतन चिंतन किया करते थे।  जीवन के भटकन और उलझनों से मुक्त होकर शांति के साथ रहने, और समाज के अन्य लोगों को भी शांति प्रदान करने के उद्देश्य से वे स्वयं अशांत रहते।  –
सुखिया सब संसार है, खावे अरु सोवे।
दुखिया दास कबीर है, जागे औरु रोवे॥
            जिस प्रकार कबीर का लक्ष्य कविता करना नहीं था, उसी प्रकार दर्शन का विश्लेषण या आलोचना भी उनका गंतव्य नहीं था।  किन्तु इनके सार्वभौमिक प्रेम से सम्बद्ध विचारों में दर्शन स्वतः ही दृष्टिगोचर होता है।  यद्यपि दर्शन और कविता पृथक क्षेत्र हैं, किन्तु कबीर के दर्शन में या दोहों में, दर्शन और दोहे विलीन होकर साथ चलते हैं।  इस संबंध में महादेवी वर्मा का कथन है – "कवि में दार्शनिक को खोजना बहुत साधारण हो गया है।  जहाँ तक सत्य के मूल रूप का संबंध है वे दोनों एक-दूसरे के अधिक निकट है अवश्य, पर साधन और प्रयोग की दृष्टि से उनका एक होना सहज नहीं।  बुद्धि के निम्न स्तर से अपनी खोज आरंभ करके, उसके सूक्ष्म बिन्दु तक पहुँचकर एक दार्शनिक संतुष्ट हो जाता है।  उसकी सफलता यही है कि सूक्ष्म सत्य के उस रूप तक पहुँचने के लिए वही बौद्धिक दशा संभव रहे।  अंतरजगत का सारा वैभव परखकर सत्य का मूल आँकने का उसे अवकाश नहीं, भाव की गहराई में डूबकर जीवन की थाह लेने का उसे अधिकार नहीं।  वह तो चिंतन-जगत का अधिकारी है।  बुद्धि अंतर का बोध कराकर एकता का निर्देश करती है और हृदय एकता का अनुभूति देकर अंतर की ओर संकेत है।  परिमाणतः चिंतन की विभिन्न रेखाओं का समानान्तर रहना अनिवार्य हो जाता है।  सांख्य जिस रेखा पर बढ़कर सत्य की प्राप्ति करता है, वह वेदान्त को अंगीकृत न होगी और वेदान्त जिस क्रम में चलकर सत्य तक पहुँचता है, उसे योग स्वीकार न कर सकेगा।"[1]
            भगवान को लेकर कबीर का मानना है कि भगवान और कहीं नहीं बल्कि हमारे विचारों और कर्मों में है।  यथा –
मोको  कहाँ  ढूँढे, बंदे,  मैं तो  तेरे  पास  में
ना मैं देवल, न मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में
ना तो कौने क्रिया कर्म में, नहीं योग वैराग में
खोजी होये तो तुरंत मिलै हैं, पल भर की तलास में
कहैं कबीर, सुनो भई साधो, सब स्वाँसों की स्वाँस में
            कबीर न मंदिरवाला थे, न मसजिदवाला।  वे उन दोनों को एक साथ मानवता के सूत्र में बंधे देखना चाहते थे।  इसी तथ्य को भीष्म साहनी ने अपने नाटक 'कबीरा खड़ा बाजार में' में कबीर और कायस्थ (पात्र) के मध्य सम्पन्न संवाद के द्वारा कबीर की मानवतावादी दृष्टिकोण को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है।  यथा –
"कबीर       : मैं तो किसी को गाली नहीं देता, साहिब।
कायस्थ      : तुमने दोनों को नाराज कर रखा है।  इससे बड़ी नादानी की बात क्या होगी? समझदारी से काम लेते, एक वक्त में एक का विरोध करते, तो कम-से-कम दूसरा तो तुम्हारे साथ होता।  मस्जिदवालों का विरोध करते तो मंदिरवाले तुम्हारे साथ होते, तुमने तो दोनों को एक साथ अपना दुश्मन बना लिया है।
कबीर         : मैं तो किसी को अपना दुश्मन नहीं समझता। 
कायस्थ      : तुर्क तुर्क रहे, ब्राह्मण ब्राह्मण रहे, और जुलाहा जुलाहा।  और तीनों भगवान की भक्ति करें, यह बिलकुल मुमकिन है।
कबीर         : तीनों भगवान के सच्चे भक्त, और तीनों एक-दूसरे के दुश्मन।  तीनों एक जगह बैठकर भगवान की भक्ति नहीं कर सकते। ... ब्राह्मण ब्राह्मण को ही इंसान समझेगा, और तुर्क तुर्क को ही इंसान समझेगा और दोनों मुझे नीच समझेंगे।
कायस्थ      : नहीं, नहीं तुम भूल करते हो। 
कबीर         : मैं उन्हें गले से लगाना चाहता हूँ, क्या वे मुझे गले से लगाएंगे?
कायस्थ      : इसकी क्या जरूरत है।  जरूरत इस बात की है कि भगवान उन्हें गले लगाएँ और भगवान तुम्हें भी गले लगाएँ।
कबीर         : उनका भगवान मुझे गले नहीं लगाएगा साहिब, वह भी उन्हीं को गले लगाएगा।  फिर एक बराबर कैसे हुए?
कायस्थ      : क्या एक साथ मिलकर बैठना जरूरी है?
कबीर         : सुनिए साहब, मैं हूँ तो नीच जात का अनपढ़ जुलाहा, पर एक बात तो मैं भी समझता हूँ।  जब तक किसी की नजर में एक ब्राह्मण है और दूसरा तुर्क, तब तक वह इंसान को इंसान नहीं समझेगा।  मैं इंसान को इंसान के नाते गले लगाने के लिए, मंदिर के सारे पूजा-पाठ और विधि-अनुष्ठान छोड़ता हूँ और मस्जिद के रोज़ा-नमाज़ भी छोड़ता हूँ।  मैं इंसान को इंसान के रूप में देखना चाहता हूँ।"[2]
            उपर्युक्त संवाद से हमें यह ज्ञात होता है कि कबीर एकता और मानवता के समर्थन में कितने गंभीर थे।  हमें यह भी विदित है कि कबीर की भाषा साधुककड़ी भाषा है।  किन्तु उनकी उक्ति में भाव की सहजता के कारण वे अमूल्य और प्रिय बन पड़े हैं।  भाव की उदात्तता की गरिमा को वहन करने की क्षमता इनके दोहों में है।  डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. रामकुमार वर्मा आदि ने उनकी भाषा की खूब आलोचना की।  डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानना है कि - "भाषा पर कबीर का जबर्दस्त अधिकार था।  वे वाणी के डिक्टेटर थे।  जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया है। ... भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार-सी नजर आती है।  उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाईश को ना ही कर सके और अकथ कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की जैसी ताकत कबीर की भाषा में है, वैसी बहुत कम लेखकों में पायी जाती है।"[3] और हजारी प्रसाद का यह तथ्य बिल्कुल सत्य है।  उन्होंने प्रतीकों के माध्यम से ही दर्शन का स्वाद चखा देते हैं।  यथा –
जल में  कुम्भ कुम्भ  में  जल  है, बाहरि भीतरि पानी।
फूट्यौ कुम्भ जल जलहिं समाना, यह तत कथ्यौ गियानी॥
[जिस प्रकार जल से परिपूर्ण घड़ा पानी के भीतर रहता है, वैसी ही स्थिति काया के आवरण से बद्ध आत्मा की भी है।  जिस प्रकार घड़े के फूट जाने पर घडे की सीमाबद्ध पानी फिर बाहर के पानी में मिलकर सागर में मिल जाता है,  उसी प्रकार शरीर का आवरण हट जाने पर आत्मा पुनः परमात्मा में लीन होकर तादात्म्य हो जाती है।  इस प्रकार इनके दोहों में दर्शन के गूढ सिद्धान्त निहित होते हैं।  सरल अभिव्यक्ति इनकी विशेषता है।]
            निष्कर्ष रूप से हम यह कह सकते हैं कि संत-काव्य में अनेक कवि होने पर भी कबीर का स्थान सर्वदा आगे हैं और यह हिन्दी साहित्य के लिए गर्व की बात है।  जिस युग में इनका जन्म हुआ था, वह भारत के इतिहास में अशिक्षा, अनैतिकता और अंधकार का युग था; और कबीर उस युग की जनता के निम्नतम स्तर से संबंध रखते थे;  फिर भी उन्होंने ज्ञान की जो ज्योति जलाई वह अद्भुत है, अपूर्व है।  सुसंस्कृत युग और सुरक्षित समाज के सुपठित कवियों में कबीर निराला थे।  अन्य उच्चकोटि की रचनाओं के साथ-साथ कबीर के पद भी अपने जैसे दूसरे पतित, दलित एवं जर्जरित सामाजिकों का मनोबल बने।  निम्नवर्ग के अशिक्षित जन-समुदाय का अनैतिक, अनाचार और अधःपतन की चरम सीमा तक पहुँचकर मटियामेट हो जाना स्वाभाविक था, किन्तु संत मत के विभिन्न उन्नायकों ने उन्हें एक नेतृत्व प्रदान किया जिससे राष्ट्र का यह बहुसंख्यक वर्ग विनाश से बच सका।  भारत का ऐसा महान प्रतिभाशाली, गंभीर चिंतक एवं स्पष्ट वक्ता परंतु अनपढ़ शायद ही विश्व-साहित्य और विश्व-इतिहास में कहीं और मिलेंगे।      
            अपनी अनुभूतियों को सहज एवं स्वाभाविक भाषा में अभिव्यक्त करके कबीर ने अपने सच्चे स्वरूप का उद्घाटन किया है।  आधुनिक कवियों से भिन्न उनके विचार परिपक्व, स्पष्ट एवं जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करती हैं।  मस्तिष्क के शुष्क विचारों को हृदय की अनुभूति से अवगाहित करके सरल भाषा में व्यक्त करना इनसे ही साध्य है।  वे परमात्मा को मानते थे किन्तु मानवता के सच्चे अनुयायी होने के कारण मानवता की भावना को ही उन्होंने उस परमात्मा के प्रति अपना भक्ति माना।  "भाषा कैसी भी हो, भाव चाहिए मित्र" की उक्ति कबीर की वाणी पर पूर्णतः चरितार्थ होती है।





[1] गोविंद त्रिगुणायत, कबीर ग्रंथावली, पृ.सं. 52
[2] भीष्म साहनी, कबीरा खड़ा बाजार में, पृ.सं. 80, 81
[3] गोविंद त्रिगुणायत, कबीर ग्रंथावली, पृ.सं. 58

लेख

 वैश्वी संदर्भ में भारतीय संस्कृति : समकालीन प्रश्न
नाटकों के परिप्रेक्ष में
शारीरिक या मानसिक शक्तियों का विकास ही संस्कृति है।  मानसिक शक्ति और विकास मानव का मन, व्यवहार, से ही व्यक्त होता है, जो निरंतर परिष्कृत होता चला जाता है।  मानव व्यक्तित्व बेहतर से बेहतरीन बनाता चला जाता है।  संसार भर में जो सर्वोत्तम बातें कहीं गई हैं वे सब संस्कृति के अंतर्गत ही रखा जा सकता है।  इस प्रकार प्रकार हम कह सकते हैं कि संस्कृति सर्वदा वैश्वी ही होती है।  संस्कृति का अनुसरण करनेवाला सभ्य लगने लगता है।  किन्तु सभ्य लगने वाला व्यक्ति संस्कारी भी होगा यह आवश्यक नहीं है।
   यह सर्वविदित तथ्य है कि संस्कृति मानव को सुव्यवस्थित सामाजिक व्यवहार प्रदान करने के लिए ही बदलती रहती है।  समाज के सभी लोगों का सुख ही भारतीय संस्कृति का मूल संकल्पना है। 
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरमायाहः।
सर्वे भद्राणी पश्चंतु माकश्चितदुःखमाद्भवेत॥
      इस पृथ्वी मे विभिन्न प्रान्तों में जहाँ-जहाँ मानव अधिवास करता आया है, वहाँ वह अपने द्वारा विकसित संस्कृति का प्रभाव छोड़ता आया है।  इस प्रकार प्रत्येक देश के हर क्षेत्र में आदर्शमय मानवीय संस्कृति विकसित होती रही।  भारत में कितनी ही विदेशी संस्कृतियाँ आईं।  कुछ समय के लिए वे भारत पर छा भी गईं, किन्तु धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति के असीम सागर में समाहित हो गईं।  ऐसे उदाहरण किसी अन्य देश के संदर्भ में कदाचित ही मिलते हैं।  मेक्समूलर ने संस्कृति को परिभाषित करते हुए अपनी किताब 'इंडिया : ह्वाट केन इट टीच अस' में कहा है, "यदि मुझसे पूछा जाए कि सबसे पहले इस धरती पर मानव विवेक कहाँ विकसित हुआ और जीवन की समस्याओं का समाधान भी हमें सबसे पहले कहाँ मिल पाया? तो मैं कहूँगा – भारत में और केवल भारत में ही।"[1] इसीलिए दिनकर जी अपनी कृति 'संस्कृति, भाषा और राष्ट्र' के 'हिन्दू-संस्कृति की पाचन शक्ति' नामक शीर्षक में हिन्दु संस्कृति की क्षमता को सिद्ध करते हुए कहा है – "हिन्दु-संस्कृति की पाचन-शक्ति बड़ी प्रचण्ड मानी जाती है।  इसका कारण शायद यह है कि जब आर्य इस संस्कृति का निर्माण करने लगे, तब उनके सामने अनेक जतियों को एक संस्कृति में पचाकर समन्वित करने का सवाल था जो उनके आगमन के पहले से ही इस देश में बस रही थीं।  अतएव उन्होंने आरंभ से ही हिन्दु-संस्कृति का ऐसा लचीला रूप पसंद किया जो प्रत्येक नई संस्कृति से लिपटकर उसे अपना बना सके।"[2]
      भौतिक परिवेश, आनुवंशिकता, संस्कृति और विशेष अनुभवों के संयोजन से ही किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व बनता है।  परिवेश, भौगोलिक वातावरण, सांस्कृतिक परिवर्तन भी व्यक्तित्व पर प्रभाव डालती है।  कुछ हद तक परिवेश सांस्कृतिक विकास को भी निर्धारित करता है और संस्कृति मानव के विकास को।  इतना ही नहीं व्यक्ति का परिवेश से और परिवेश से व्यक्तित्व व संस्कृति से संबंध तथा इन सब के बीच का संबंध भी स्पष्ट हो जाता है।  परिवेशजन्य स्थितियाँ प्रेरणा कारकों से अनुमोदक व सीमित होती है।  वे व्यक्तित्व विकास में सीमाएं निर्धारित कर देती हैं।  वंशानुगत परम्पराएँ मानव व्यक्तित्व का एक और पहलू हैं।  मानव व्यक्तित्व में समानता आनुवंशिक माना जा सकता है।  प्रत्येक मानव समूह जैविक आवश्यकताओं और क्षमताओं को विरासत में लेकर आता है।  ये आम जरूरतें और क्षमताएँ व्यक्तित्व में एकरूपता दर्शाते हैं। 
       भारतीय संस्कृति में मानव व्यक्तित्व पृथक नहीं है।  संस्कृति सभी विचारों और कार्यालापों का माध्यम है।  किसी भी व्यक्ति के अनुभवों और सामाजिक सम्प्रेषण से तथा उसके विचार (रीति-रिवाजों, मान्यताओं, मूल्यों, जाति, धार्मिक और सामाजिक समूह) से उसके व्यक्तित्व का अंकन किया जा सकता है।  व्यक्तिगत पहचान   संस्कृति से जुड़ा होता है।  हम उस संस्कृति को अधिक मानते हैं, जो पारंपरिक रूप से हमारे बड़े-बूढ़े मानते आए हैं।  परोक्ष रूप से हम सांस्कृतिक विरासत के वाहक हैं।  हमारी संस्कृति की परिभाषा को बदलना कठिन है और उससे हम स्वयं को अलग भी नहीं कर सकते।  हम किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व या मूल्यांकन उसके सांस्कृतिक मूल्यों पर निर्भर होता है।  व्यक्तित्व आनुवांशिक होता है।  परिवेश के प्रभाव से कुछ और तत्व जुड़ जाते हैं। संस्कृति समकालीन भाषा के माध्यम से, व्यवहार के माध्यम से व्याप्त होता है।  परिस्थितियाँ संस्कृति के साथ उसमें बसे मानव व्यक्तित्व के विकास को भी प्रभावित करती है।
पश्चिम की भौतिकवादी, भोगवादी, और उपयोगितावादी संस्कृति के अनुकरण का परिणामस्वरूप भारतियों में सभी नकारात्मक तत्व विद्यमान हैं।  किसी भी संबंध को गंभीरता से नहीं लेते।  सूक्ष्मग्राहिता और संवेदनशीलता अपनों के प्रति भी जाती रही है।  हर वस्तु अस्थायी और यूस अण्ड थ्रो बन गई है। चाहे वह मानवीय संबंध हो या फिर रोज़मर्रा की नित्य वस्तु हो।  आज अधिकांश भारतीय युवा माल-संस्कृति, रेडीमेड-वस्त्र, इन्स्टेट भोजन और इलेक्ट्रानिक उपकरण के आदि हो गए हैं।  ये सभी वस्तुएँ वैभव के प्रतीक बन गए हैं।  माँ के लड्डू से भी बेरर के पिज्जा और बरगर को महत्व दिया जाता है।  घरेलू पकवानों को नहीं खाना, अपनी भाषा का प्रयोग नहीं करना, ब्रांडेड कपड़ों का पहनावा, माँ को ममी (मृत) और पिताजी को डैड (मृत) कहते हुए अपने आपको संस्कारी समझना आज के युवा पीढ़ी का फैशन बन गया है।  परिग्रह, विलासता, उच्छृंखलता, आडंबर, यौन-उन्मुक्तता को अपनाने लगे हैं।  जीवन का लक्ष्य मात्र धन कमाना और उस धन से अधिकतम भोग-विलास प्राप्त करना है।  पारिवारिक या सामाजिक उत्तरदायित्व में अपनी सहभागिता देना समय की बरबादी समझते हैं।  दायित्वों को पैसों के बल पर दूसरों से पूर्ण करवाने पर विश्वास रखते हैं।  व्यक्तिगत सम्बन्धों से कोई सरोकार नहीं होता।  अन्य संस्कृति के नाम पर वैश्वी संस्कृति को छोड़कर जो अंधाधुंद अनुकरण किए जा रहे हैं, किसी का हित नहीं कर सकती।  युवा पीढ़ी को ही संबोधित करते हुए विवेकानंद कहते हैं – "गर्व से कहो कि हम भारतीय हैं और सभी भारतीय हमारे भाई हैं।  अज्ञानी और दरिद्र ब्राह्मण और परीहा (अछूत) सभी हमारे भाई हैं।  भारत के देवी-देवता हमारे हैं।  अपना समाज ही बचपन का झूला, यौवन का नंदनवन और बूढ़ापे की काशी है।  भारत की मिट्टी ही स्वर्ग है।  भारत का कल्याण है और इसके लिए दुर्बलता को छोड़कर सबल बनो"[3]
       सांस्कृतिक विकास का प्रथम सोपान दोषमार्जन है।  सांस्कृतिक विकास का प्रथम सोपान दोषमार्जन है।  दूसरा अतिशयाधान और तीसरा हीनांग पूर्ति है।  जिस प्रकार प्राप्त खाद्य पदार्थ को धोना दोषमार्जन है,  उसे तरह-तरह से पकाना अतिशयधान एवं नमक, मसाले से उसका संबंध जोड़कर कुछ कमियों को पूरा करना हीनांग पूर्ति है, उसी प्रकार मनुष्य अपने कमजोरियों से छुटकारा पाकर उत्थान का पथ अपनाना हीनांग पूर्ति है।   पाँच ज्ञानेन्द्रिय, हृदय तथा बुद्धि, ये सात-सांस्कृतिक विकास के आयाम हैं।  मानव के व्यक्तित्व – सामाजिक मानसिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में अर्जित समस्त विभूतियाँ संस्कृति की सीमा में आ जाते हैं।  इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति अत्यंत विशाल एवं व्यापक एवं लचीला है।  यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारतीय संस्कृति में अन्य संस्कृतियाँ समाहित हैं। 
      आजकल अंग्रेजी शब्द Diplomacy बहुत प्रचालन में है। कूटनीति, राजनीति, व्यवहार कौशल, कुटिलनीति, राजनय, स्ट्रेटजी आदि डिप्लोमसी के पर्याय हैं।  यह एक ऐसा रंगीन पर्दा है,  जिसके आड़ में सभी दुष्कृत्यों को व्यवहार कुशलता के नाम पर की जाती है।  यह आज की संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है।  इस व्यवहार को आज की संस्कृति का एक मुख्य माना जाता है।  काइयों ने इसे आपद्धर्म का पर्याय मानते हैं।  किन्तु सही अर्थ में नकारात्मक कार्यों को डिप्लोमासी का जादूई नकाब ओढ़कर सकारात्मक के रूप में दर्शाया जाता है।  तर्क दिया जाता है।  ऐसी व्यवहार कुशलता को सभ्य कहा जा सकता है किन्तु सुसंस्कृत नहीं।  
      समकालीन परिप्रेक्ष में देखा जाए तो स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भारतीय
जन-मानस के लिए नई आशाएँ एवं उमंगे जगाने वाली घटना रही।  जन-मानस के उद्वेलित संवेदनाओं के साथ साहित्य भी अंतरवाहा रूप में परिवर्तित होता रहा है जो समकालीन भारतीय संस्कृति
, परंपरा और जीवन–शैली का द्योतक है।  युगीन मांग के अनुरूप मानव की मानसिकता, साहित्य का स्वरूप बदलता रहा है और बदलता रहेगा। जैसा कि पहले कहा गया है, भारतीय संस्कृति अत्यंत लचीला है; और लचीला होने का अर्थ यह नहीं है कि गलत के साथ समझौता करना।  व्यक्ति चेतना और जन चेतना सर्वदा तत्कालीन परिस्थिति का बोध कराता है। 
      हिन्दी में अन्य विधाओं के साथ-साथ नाटक विधा में भी अपने नए बोध एवं रूप ढूँढना आरंभ किया।  समकालीन नाट्य परिदृश्य को समृद्ध करने में मोहन राकेश,
शंकर शेष
, लक्ष्मीनारायण लाल, सुरेन्द्र वर्मा, भीष्म साहनी, धर्मवीर भारती, गिरिराज किशोर, मणिमधुकर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, आदि नाटककर सक्रिय रहे।  आठवें एवं नवें दशक में नरेंद्र कोहली, कुसुम कुमार, मृणाल पांडे, मन्नू भण्डारी, सुशील कुमार, मृदुला गर्ग, राजेश जैन, द्या प्रकाश सिन्हा, शरद जोशी, कुसुम कुमार, आदि प्रमुख हैं।
      समकालीन नाटकों में ऐतिहास, सामाजिक, राजनैतिक वस्तु का प्रयोग किया गाया है किन्तु नाटक चाहे पौराणिक हो, सामाजिक हो, राजनैतिक हो या काल्पनिक; समकालीन बोध विविध वस्तु-विधान में व्यक्तिगत एवं समीष्टिगत जीवन दृष्टि दो रूपों में प्रकट होती है।  आख्यानों के माध्यम से सामाजिकों के सम्मुख समकालीन व्यक्तिगत एवं सामाजिक समस्याओं पर प्रश्न किए जाते हैं, जिससे दर्शक या पाठक चिंतन कर बेहतरीन समाधान ढूंढ पाए और साथ-साथ सामाजिक समस्याओं का भी समाधान किया जाता है।
      व्यक्ति चेतना के अंतर्गत शंकर शेष का नाटक 'कोमल गांधार' और सुरेन्द्र वर्मा कृत 'सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक' नाटकों में तुलनात्मक विश्लेषण करने पर यह विदित होता है की लेखकों के चिंतन में भी भिन्नता है।  उपर्युक्त प्रस्तावित दोनों ही नाटकों में राजनीति और राजसत्ता को बनाए रखने के लिए नारी अस्तित्व को दांव पर लगाया जाता है।  उनकी प्रतिक्रियाएँ एवं संवाद पाठकों अथवा दर्शकों को चिंतन करने में बाध्य कर देता है।  किन्तु नाटककार की प्रस्तुतीकरण में अवश्य अंतर है।  
      शंकर शेष कृत 'कोमल गांधार' का पहला पात्र गांधारी का है, जो अपने विवाह को लेकर अत्यंत प्रसन्न है।  भीष्म एवं संजय गांधारी को गांधार देश से हस्तिनापुर लेकर जा रहे होते हैं।  गांधारी को यह नहीं बताया जाता कि धृतराष्ट्र अंधा है।  हस्तिनापुर पहुँचने के बाद जब गांधारी को पता चलता है की धृतराष्ट्र अंधा है तो वह टूट जाती है और कहती है –
गांधारी    : मेरे सहमती का कोई अर्थ नहीं है क्या? क्यों नकार दिया गया मेरे अस्तित्व को पूरी तरह?  राजनीति इतनी क्रूर होती है क्या? अब समझ में आ रहा है भीष्म के शब्दों का अर्थ।  भीष्म ने न केवल षडयंत्र रचा, उसे आखिर तक निबाहने की तैयारी भी की।  राजरक्त से जन्मे एक शरीर से ज्यादा कुछ नहीं माना गया मुझे क्यों?
      सुरेन्द्र वर्मा कृत 'सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक' की नायिका शीलवती का विवाह ओक्काक से पाँच वर्ष पूर्व हुआ था किन्तु राज्य को एक उत्तराधिकारी नहीं दे पाई।  इसके जिम्मेदार स्वयं राजा ओक्काक ही है।  पुंसत्व हीनता उसकी कमजोरी थी।  राजसत्ता को ध्यान में रखकर राजपुरोहित, महामात्य एवं महाबलाधिकृत राजा ओक्काक को समझते हैं और मना लेते हैं कि शीलवती उपपति के माध्यम से उत्तराधिकारी देगी।  जब शीलवती को पता चलता है तो वह कहती है –
शीलवती : एक स्त्री की दृष्टि से आप नहीं देख सकते। बिल्कुल अजनबी पुरुष के साथ...।  समझ में नहीं आता... क्या करूँ... क्या न करूँ?...। मेरे लिए कोई क्या कर सकता है। ... सोचती हूँ और काँप-काँप जाती हूँ। ... एक अनजाना भवन, ...उस भवन का शयनकक्ष ... उस शयनकक्ष की शैया... उस शैया पर... वेश्याओं के मनोबल की जितनी सराहना की जाया, कम है।
       शीलवती अपने पुराने प्रेमी को उपपति चुनती है और पहली बार शारीरिक सुख का अनुभव करती है।  वह पुनः उससे मिलने के लिए गर्भ निरोध की औषधि का सेवन करती है।  महामात्य के पूछने पर कहती है –
शीलवती : जब आप अपनी पत्नी के साथ सोते हैं...? ... तो क्या सोचते हैं उन क्षणों में?  अमात्य-परिषद का चुनाव... सीमाओं की सुरक्षा? राजकोष की कमी? ... और आपकी पत्नी क्या सोचती है? ...दूधिया दाँत और अबोध मुद्रा? ...कितने मूर्ख हैं आप! ...महामूर्ख! ...मूर्खों के सम्राट!... शयनकक्ष की यह समझ है आपको? ...... नारी की सार्थकता मातृत्व में नहीं है, महामात्य! है केवल पुरुष के संयोग के इस सुख में... मातृत्व केवल गौण उत्पादन है...जैसे दही से निकलता तो मक्खन है, लेकिन तलछट में थोड़ी-सी छाछ भी बच जाती है...
      इस प्रकार आधुनिक नाटकों की प्रस्तुति मनोवैज्ञानिक रूप से किया जा रहा है।   भाषा-शैली का स्तर यथार्थता के नाम से अत्यन्त समान्य और हल्का होता जा रहा है।  इस नाटक के विषय में डॉ. जयदेव तनेजा कहते हैं कि – "यह नाटक समसामयिक स्तर पर मूल्यों के बदलावा के संदर्भ में कुस जातक के प्राप्त ओक्काक व शीलवती के पत्रों के बहाने से दंपति सम्बन्धो की गहरी व बारीक छानबीन करता है तथा शासक और शासन तंत्र के आपसी रिश्ते के विश्लेषण के माध्यम से सत्ता तंत्र के समक्ष स्वयं सत्ताधारी की विवशता, नपुंसकता और त्रासदी को रेखांकित करता है।"[4]
      जन चेतना प्रधान नाटकों के अंतर्गत स्वतंत्र्योत्तर सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक शोषण मूलतः व्यवस्था में शोषित जन जीवन की विविध समस्याओं का व्यापक एवं सशक्त अंकन हुआ है।  इसके साथ-साथ शोषण से मुक्ति के लिए संघर्षशील
जान-चेतना की अभिव्यक्ति हुई है।  जन चेतना प्रधान नाटकों के अंतर्गत सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का नाटक
'बकरी' और लक्ष्मीनारायण लाल कृत 'एक सत्य हरिश्चंद्र' खरा उतरते हैं। 
      'बकरी' नाटक में तीन ठग एक गाँव में आते हैं और लोगों के अंधविश्वासों का पूरा-पूरा लाभ उठाते हैं।  किन्तु गाँव वालों की दयनीय दशा के बाहर निकालने के लिए कर्मवीर नामक युवक कमर कसता है और अंत में गाँववालों को अंधविश्वास के कूप से बाहर निकालने में सफल होता है। 
दुरजनसिंह : पच्चीस साल के इस बकरी की खोज हो रही थी।  सरकार का खुफिया विभाग, पुलिस, पल्टन सब इसे खोज रहे थे।  यह गांधीजी की बकरी है।  गांधीजी देवता थे।  उनकी बकरी भी किसी देवी से कम नहीं है।  अब इस बकरी को हम सेवाश्रम में रखेंगे।  इसकी पूजा करेंगे।  इसकी पूजा करने से तुम्हारे खेत लहलहाने लगेंगे।  पानी जमीन फोड़कर निकलेगा।[5]  यह कहकर गरीब विपति की बकरी को हथिया लेते हैं। 
कर्मवीर   : अब भी कुछ समझे आप लोग? आप लोगों ने बकरी को देवी माना।  बाद में सारा गाँव वह जाने दिया पर आसरम को नहीं डूबने दिया।  गाँव की जमीन खोद-खोदकर आसरम की जमीन ऊंची करते रहे।  सूखे पड़े,  खुद भूखे रहें।  घर का अनाज आसरम को दे आए।  आसरम में दावतें उड़ती रहें, खुद भूखों मरते रहे फिर उन्ही लुटेरों को कंधों पर बैठाकर देश की बाग-डोर थमा आए।  अब भी कुछ समझो आप लोग?[6]
      लक्ष्मीनारायण लाल कृत 'एक सत्य हरिश्चंद्र' नाटक में लौका नामक एक हरिजन व्यक्ति है।  देवधार उसी गाँव का जमींदार है।  हरिजन होने के बावजूद लौका अच्छा व्यक्तित्व वाला व्यक्ति है।  देवधार हमेशा कुछ न कुछ हथकंडे अपनाकर उसे दबाने का प्रयत्न करता है।  किन्तु लौका हार नहीं मानता। 
लौका     : हमारे लिए सारी चिंता आप करते हैं, यही आपकी राजनीति है, अगर हम अपनी  चिंता खुद करें तो यही पांचों की जीत है। 
      नाटक के अंत में गाँववाले तो गाँववाले, देवधार के अनुयायी भी लौका का पक्ष हो जाते हैं और देवधार के खिलाफ हो जाते हैं।  
जीतन    : प्रजा अब खुद शक्ति बन रही है।  लोग जाग रहें हैं।
गाँव के लोग : हमारे दुख हमें जागा रहें हैं।  तुम्हारे चरित्र हमें समझा रहे हैं।  अब हम खुद अपनी लड़ाई लड़ना चाहते हैं। 
      इस प्रकार हमें समकालीन नाटकों में जनमानस की संवेदनाएँ साहित्यकारों के माध्यम से दृष्टिगोचर होती रहती हैं।  शिल्प-शैली के धरातल पर समकालीन नाटकों में याथार्थ के साथ अनेक गैरयथार्थ आख्यान भी सम्मिलित हैं।  समकालीन नाटककारों ने नाटक की भाषा को नए आयाम और आस्वाद दिये।  मानक हिन्दी के साथ साथ शहरी और देहाती बोलियों का भी समावेश मिलता है।  मौलिक नाटकों के अतिरिक्त विदेशी तथा देशी अन्य भाषा के अनुवाद काफी मात्रा में हुए हैं, जिसके फलस्वरूप हिन्दी नाटककारों और दर्शकों को अलग-अलग शैलियों और रंग दृष्टियों वाले नाटकों के आस्वादन अध्ययन का अवसर प्राप्त हुआ।  कुल मिलाकर संवेदना तथा रंग संरचना की दृष्टि से समकालीन हिन्दी नाटक संस्कृति को साथ लेकर एक व्यापक परिदृश्य प्राप्त कर पाने में सफल हो रहा है। 




[1] सी दुर्गा शारदा, साठोत्तरी नाटकों में सांस्कृतिक चेतना, पृ. सं. 4
[2] रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति, भाषा और राष्ट्र, पृ.सं. 54
[3] पांचवा स्तम्भ, सकारात्मक चिंतन एवं विकास का संवाहक, वर्ष-8, अंक-83, जनवरी-2014, डॉ. बद्री प्रसाद पंचोली, पृ. सं. 21

[4] जयदेव तनीजा, आधुनिक भारतीय नाट्य विमर्श, पृ.सं. 61
[5] सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, बकरी, पृ.सं. 37,38
[6] सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, बकरी, पृ.सं. 72