Sunday 15 March 2015

बस..... एक दस्तख्वत (लघु कथा )


बस..... एक दस्तख्वत

     संजीव और राजेश्वरी पति-पत्नी हैं। छब्बीस वर्ष का पुरुषोत्तम उनकी एक मात्र संतान है। वह अपनी माँ और बाबूजी से बहुत प्यार करता है और उसे भी उनके प्यार के साथ-साथ गुरुजनों का आशीर्वाद भी प्राप्त है। परंतु उसे बहुत ही दुख है की वह अपने माँ-बाबूजी के लिए कुछ नहीं कर पा रहा। वह बहुत ही होनहार और विनम्र स्वभाव का लड़का है किन्तु कुछ दिनों से वह अपनी माँ के साथ एक बात को लेकर बहस कर रहा है। उसकी माँ कहती है – माँ मैं कहीं नहीं जा रहा हूँ.... न जाऊंगा..... मुझे कोई नहीं छीनेगा तुझसे.... मैं केवल आप दोनों के लिए ही तो सोच रहा हूँ...। राजेश्वरी पुरुषोत्तम की बात को नहीं मानती – मैं कुछ नहीं सुनना चाहती ... तू तो हमारा एक ही बेटा है। हमें मुखाग्नि तुझे ही देनी है। तू ऐसी बातें करेगा....तो हमारा क्या होगाहमें नर्क में भेजेगा क्यासमाज को हम अपना मुँह कैसे दिखाएंगे?....क्यों जी आप बोलते क्यों नहींऐसे खड़े हो जैसे सांप सूंग गया हो.....

        दोनों ही अपने स्थान में सही होने के कारण संजीव किसी के भी पक्ष में नहीं बोल पा रहे हैं। उन्हें दुख है कि न वो किसी का समर्थन कर पा रहे हैं और न ही समस्या का हल ढूँढ पा रहे हैं। वे अपनी पत्नी को लेकर चिंतित हैं कि कहीं उसकी तबीयत न बिगड़ जाए और बेटे को लेकर गंभीर हैं कि कहीं उसका भावी जीवन खराब न हो जाए।

        संजीव अकेले बैठे सोच में पड़ जाते हैं कि परिस्थितियाँ व्यक्ति को कैसे निचोड़कर रख देती हैं। एक होनहार और मेहनती लड़का जब जीवन के संग्राम में जीत कर भी हार जाता हैतो उसकी मनोदशा का क्या कहनामानो भूखे के सामने भोजन परोसा हुआ है किन्तु भोजन थाल में कुत्ता सूँघ कर गया हो। ऐसे में न खाते बनाता है और न ही फेंकते बनाता है। आधीरात के सन्नाटे की तरह पुरुषोत्तम का मौनउसकी बोझिल दृष्टि और सीमित बातेंउसके माता-पिता को परेशान करने लगीं। हर बात बीच में ही ऐसे कट जाती थी मानो उनकी कोई मर्यादा निर्धारित कर दी गई हो।

        उन्हें विश्वास था कि रामू भी यह सब कुछ जानता होगा क्योंकि व पुरुषोत्तम का लंगोटिया यार है। उसकी बातें पुरुषोत्तम को बहका सकती हैं। वे यह भी जानते थे कि रामू अपने स्वार्थ के चलते पुरुषोत्तम को किसी भी प्रकार का गलत राय नहीं दिया होगा। इसी बात को जानने के लिए एक दिन संजीव ने रामू से अनुरोध किया कि वह अकेले पार्क में आकार मिले।

पुरुषोत्तम के बचपन की मित्रमंडली अभी भी हरी-भरी है। रामू उसका बचपन का घनिष्ठ मित्र था। सामाजिक मापदण्ड में, उसकी जाति छोटी मानी जाती थी। दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। कॉलेज में भी मिलकर पढ़ाई की। रामू पुरुषोत्तम की तरह अव्वल छात्र तो नहीं थाकिन्तु औसतन उसे अच्छे अंक मिल ही जाते थे। कॉलेज के बाद पुरुषोत्तम यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया। सरकारी नौकरी लग जाने के कारण रामू ने आगे की पढ़ाई नहीं की। फिर भी पुरुषोत्तम अपनी मित्र मंडली से समय-समय पर मिलता रहता था। उसके अन्य मित्रजो पढ़ाई और अन्य गतिविधियों में कमजोर थेवे भी सरकारी नौकरियों में तैनात हो गए। पुरुषोत्तम ने भी सरकारी नौकरियों के लिए अर्ज़ियाँ दी किन्तु नौकरियाँ न पाकर आगे की पढ़ाई जारी रखते हुए उसने अपनी रीसर्च की पढ़ाई भी पूरी कर ली। उसे विश्वास था कि मेहनत का फल मीठा होता है। उसकी जज्बा को देखकर उसके माँ-बाबूजी खुशी के साथ प्रोत्साहित करते रहे।

        उपयुक्त नौकरी नहीं मिल पाने के कारण पुरुषोत्तम धीरे-धीरे मायूस होने लगा। हमेशा की तरह एक शाम पुरुषोत्तम अपने मित्र रामू और सुरेन्द्र से मिला। बातों-बातों में नौकरी की बात छिड़ जाती है। पता चलता है कि सुरेन्द्र की नौकरी भी पक्की हो गई है। उसने कहा कि उसके मामा ने कुछ-कुछ करके उसकी ऐसी जगह नौकरी पक्की करा दी है जहाँ से चुकौती भी हो जाएगी।

        अब संजीव जल्द ही अवकाश करने वाले हैं। उनकी पत्नी राजेश्वरी माँ बूढ़ी हो चली थी। कभी कभार बीमारियाँ भी दस्तक दे जाती थीं। दवाइयाँ भी अपनी स्थायी जगह बना रही थीं। अब अपने बाबा का हाथ बटाने के लिए पुरुषोत्तम एक प्राइवेट कॉलेज में लेक्चरर की अस्थाई नौकरी करने लगा। अब उसे डर लगने लगा कि सरकारी नौकरी शायद उसे नहीं मिल पाएगी। यही बात कभी-कभी वह अपनी जिगरी दोस्त रामू से कहकर दुखी हुआ करता था। आखिर रामू भी क्या कर सकता थासुरेन्द्र लापरवाही से कहता है – “तू अग्रजाति को होने के कारण तेरा ये हाल है यार....... बुरा मत मानना...... बात कड़वी है परंतु वह सच है। खैर हम लोग तो उसी का लाभ उठा रहे हैं इसलिए मैं कोई बुराई नहीं कर सकता। दर असल तेरी इतनी अच्छी डिग्रियाँ हैं कि तुझे तो कम से कम कलक्टर की नौकरी मिल जाना चाहिए।”

        दूसरे दिन रामू के आग्रह से पुरुषोत्तम उससे मिलता है और कहता है- “जितना मैं तुझे जानता हूँ......शायद ही तुझे कोई और समझ सकता हो...... किन्तु अगर तू बुरा नहीं मानेगा तो मैं एक बात कहना चाहता हूँ।”

क्या?

“सबसे पहले तू मुझे यह बता कि तू अपनी नौकरी को लेकर कितना गंभीर है?” रामू ने पूछा

“बहुत...... बहुत गंभीर हूँ! तू जानता है। मैं अपने माँ-बाबूजी का एक मात्र सहारा हूँ। अब उन्हें मेरी जरूरत है। किन्तु मैं कुछ नहीं कर पा रहा हूँ। मेरे पास सुरेन्द्र की तरह अमीर मामा नहीं हैं और ना ही मेरे बाबूजी अमीर हैं। कोई ठीक तरकीब बताओगे तो जरूर सोचूंगा....... पीछे नहीं हटूँगा।”

“मेरी एक बात मानेगा? लेकिन काम बहुत कठिन है। सोच कर बताना। कोई जल्दी मत करना।” 

“कैसी बात रामू?

“क्या तू अपनी जाति को गिरवी रख सकेगा?

“क्या? यह कैसा प्रश्न है? जाति की गिरवी? भई ऐसा भी होता है क्या? जाति को गिरवी रखकर कोई नौकरी देगा? क्या करना पड़ेगा मुझे? कसाई बनाएगा क्या? माँस काटना पड़ेगा? पता है गीता में क्या कहा है?  स्वधर्में निधनं श्रेय:, पराधर्मों भयावह:। यार अधर्म नरक से काम नहीं होता”

देख मुझे गीता-वीता नहीं समझना है। मैं अपने दोस्त के बारे में सोच रहा हूँ। तुझे और तेरे परिवार को खुश देखना चाहता हूँ। मैं फिर से पूछ रहा हूँ- बोल तू अपनी जाति को गिरवी रख सकेगादेख ! मेरी बातों को तू अन्यथा न लेना। ठंडे दिमाग से सोचना। मैं केवल तेरे और तेरे परिवार की भलाई के बारे में सोचकर ही यह बात कहने जा रहा हूँ। मुझे पता है कि मैं पुण्य का काम कर रहा हूँ। शायद किसी के आँसू पोंछ पाऊँ। सुन.... अगर तू यह प्रमाणित कर देगा कि तू अग्रकुल का नहीं हैंतो काम बन सकेगा। तुझे तेरे लायक नौकरी तुरंत अवश्य मिल जाएगी। नहीं मिला तो मैं अपनी कान कटवा लूँगा.... नहीं कान क्या मैं अपना गला ही कटवा लूँगा। क्या बोलता है पुरुषोत्तम.......? रखेगा अपनी जाति की गिरवी?” 

“यह क्या कह रहा है तू ?  यह कैसे संभव है रामू? कौन गिरवी रखेगा यार?”

“गिरवी सरकार ही रखेगी जिगरा! यह पूरी तरह से कानूनी है। भारत सरकार ही अपने पास सखकर तुझे बुला-बुला कर नौकरी देगी। सच में यार .... मैं ठीक कह रहा हूँ......... बोल..... कर करेगा?

“किन्तु रामू.... मैं ...... यह सब ....... असंभव है यार....!”

“मेरे बाबूजी के द्वारामेरे घर में यह सब संभव हो सकता है। बस थोड़ा व्यावहारिक बनाना पड़ेगा। औपचारिक रूप से एक बार मेरे माँ-बाप का संतान कहलाएगा नतो सब कुछ ठीक हो जाएगा। अपनी बचपन की वो खुशी लौट आएगी। तेरे और तेरे परिवार वालों के चहरे पर मुस्कुराहट देखे अरसों हो गए हैं। इसके लिए तुझे मेरे यहाँ रहने की भी आवश्यकता नहीं है। क्या तू अभी मेरा भाई नहीं? तब भी तू मेरे लिए वही रहेगा। जिन परिस्थितियों के कारण तुझ जैसे होनहार नौजवान को नौकरी नहीं मिल रही है न.........उनका सामना इसी तरीके से किया जा सकता है। अपने हक की नौकरी लेना कोई पाप नहीं है। हम इंसान हैं भगवान नहीं। इंसान की तरह जीना कोई गुनाह नहीं हैं। ठीक है न.......क्या बोलता हैयही सबसे अच्छा रास्ता है। मैंने अपने माँ-बाबूजी से यह बातें कही तो उन्हें बहुत दुख हुआ। वे अनपढ़ जरूर हैं किन्तु वे विद्वत्ता का सम्मान करने वालों में से हैं। उन्हें दस्तख्वत करने में कोई आपत्ती नहीं। बस एक-एक दस्तख्वत तुम तीनों की भी ......... । तू समझ रहा है न मैं क्या कह रहा हूँतू अपने माँ-बाबूजी से परामर्श करने के बाद मुझे बता देना। मैं जानता हूँ यह छोटी बात नहीं हैं किन्तु सोचने वाली बात जरूर है। तुम्हारा जवाब तुम्हारा भविष्य निश्चित करेगा। हम तब भी मित्र थेअब भी हैं और आगे भी रहेंगे। हमारी दोस्ती की जाति सच्ची है बाकी सब मैं नहीं जानता।” रामू और पुरुषोत्तम गले मिलते हैं।


जयहिन्द 
शारदा