Sunday 10 May 2015

साहित्यकारों के साहित्यकार 'रवीन्द्रनाथ टेगोर'

रवीन्द्रनाथ टेगोर  
साहित्यकारों के  साहित्यकार 'रवीन्द्रनाथ टेगोर'
किसी भी साहित्यकार का व्यक्तित्व उसके द्वारा सृजित रचनाओं के द्वारा ही व्यक्त होता है।  जिसके अंतर्गत उनकी अभिव्यक्ति कौशलता, भाषा का ज्ञान, भाषा में प्रांजलता, संवेदनशीलता एवं उनकी प्रौढ़ता निहित होती है।  एक ही परिस्थिति, वस्तु या अवस्था के लिए विभिन्न लोगों के स्पंदन प्रक्रियाओं में भी पृथकता दृष्टिगोचर होती रहती है।  किसी भी व्यक्ति की स्पंदन प्रक्रिया उस व्यक्ति की मानसिक स्तर, सामर्थ्य के अनुरूप विचार एवं उसके अनुभवों के आधार पर ही निर्भर होता है।  उपर्युक्त तथ्यों से किसी भी व्यक्ति की परिपक्वता और व्यक्तित्व भी आँकी जा सकती है।    अलग-अलग क्षेत्रों में कार्यरत व्यक्तियों के विचार और अनुभवों में पृथक होना प्रकृतिक भी है और अवश्यंभावी भी।  विचारों की पृथकता ही नए आयामों को जन्म देती हैं।  उदाहरण के लिए एक सुंदर फूल को देखकर एक स्त्री जैसे स्पंदित होती है, वैसे एक पुरुष नहीं होता, एक कवि जैसे सोचता है, ऐसा एक साधारण व्यक्ति नहीं सोच सकता, एक वनस्पति शास्त्र के ज्ञाता जिस दृष्टि से देखता है, वैसा एक भक्त नहीं देखता।  इस प्रकार इस संसार में सभी मनुष्य, परिस्थितियों और परिवेश के समान होने पर भी, उनकी आवश्यकताओं, विचारों, अनुभवों और मानसिक स्तर के अनुरूप उनकी दृष्टिकोण में भी पृथकता आ ही जाती है।  फिर भी हम यह अवश्य कह सखते हैं कि एक ही विषय या वस्तु के लिए अलग-अलग परिप्रेक्ष्य होने के कारण ही अलग-अलग विश्लेषण भी हमारे सम्मुख प्रस्तुत किए जाते रहें हैं।  इन्हीं मानसिक वैविध्यताओं के कारण ही साहित्य में भी पृथकता दृस्टिगोचर होती है।  चूंकि हम इस समय साहित्यकारों के साहित्यकार रवीन्द्र नाथ टेगोर के बारे में विचार कर रहें हैं, हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि ये महान साहित्यकार, अन्य साहित्यकारों से किस प्रकार भिन्न हैं और क्यों महान हैं?   
एक साहित्यकार समाजिक होकर भी अन्य सामाजिकों से पृथक होता है।   चाहे फिर वह विश्व का कोई भी साहित्यकार क्यों न हो और संसार के किसी भी कोने में क्यों न बसा हो।  साहित्यकारों का हृदय जीतने वाला साहित्यकार ही विश्व साहित्यकार बनाता है।  भारत में 'रवीन्द्र नाथ टेगोर' ने उस प्रशस्ति को प्राप्त किया है।  उन्हें केवल भारतसियों ने ही नहीं, बल्कि समग्र विश्व ने प्रशंसा की है।  रवीन्द्र नाथ टेगोर केवल महान कवि ही नहीं बल्कि वे एक अच्छे उपन्यासकार, कहानीकार, नाटककर, संगीतकार, शिक्षाविद एवं दार्शनिक भी थे।  उनकी रचनाओं में उपर्युक्त सभी तथ्य यदाकदा प्रतिबिम्बित होते ही रहते हैं।    
            रवीन्द्र नाथ टेगोर ने अपनी कहानियाँ तथा उपन्यास केवल बंगला भाषा में ही लिखा था किन्तु उन्हें सुनकर ही कई लोग प्रेरित हुए और प्रायः दुनिया के सभी भाषाओं के लोगों ने उन्हें अपनी भाषाओं में अनुवदित कर लिया।  उनकी कहानियों में उत्कृष्ट मानवीय प्रेम, मानवीय सम्बन्धों के विभिन्न पहलुओं की मार्मिक प्रस्तुति तथा मानवीय स्वाभिमान का भाव सिमटा हुआ दिखाई पड़ता है।  उपर्युक्त तथ्यों के अलावा उनकी कृतियों में बंगाली भाषा के प्रति प्रेम, उनकी बचपन की छवि, दर्शन, मानव संबंध, संवेदनशीलता, प्रकृति की छटा, वास्तविक आनंद जैसी भावनाएँ प्रस्फुटित होती हैं।  उनकी समग्र रचनाओं में 'गीतांजली' उत्कृष्ट विद्वत्ता की पराकाष्ठा है।
मातृभाषा के प्रति प्रेम
            कोई भी व्यक्ति अपनी मातृभूमि में जितना स्वतंत्र्यता प्राप्त करता है, कदाचित ही कहीं और करता है।  उसी प्रकार अपने मन की भावनाओं को मातृभाषा में जितनी प्रभावशाली ढंग से व्यक्त कर सकता है, कदाचित ही किसी अन्य भाषा में कर सकता होगा।  मातृभाषा माँ के जैसी सरल और मार्मिक होती है।  इसी कारण रवीन्द्र की रचनाएँ भी बहुत प्रभावशाली बन पड़े हैं।  बंगला भाषा जानने वाले व्यक्ति यह तथ्य जानते हैं कि उनकी रचनाएँ गाने एवं पठन के लिए बहुत ही सरल हैं।  किन्तु यह बात भी स्पष्ट है कि उनकी रचनाएँ गाने के लिए जितनी सरल होती हैं, उनके भाव उतनी ही गंभीर, पैने, गूढ़ार्थ, स्तरीय एवं दार्शनिक होते हैं।  जब भारतीय अंग्रेजों की यातनाओं से त्रस्त थे, और उन्हें जीवन में कोई भी अपेक्षा नहीं रह गई थी।  ऐसी विषाद एवं दयनीय स्थिति में लोगों का मनोबल बढ़ाने हेतु कवि रवीन्द्र ने लोगों के लिए अपनी कविताओं द्वारा उनमें जीवन में नई स्फूर्ति और आशा जगाने का प्रयत्न किया।  यथा – "যদি তোর ডাক শুনে কেউ না আসে তবে একলা চলো রে" (यदि तोर डाक शुने केवु ना आशे तोबे एकला चोलो रे)। तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे।" इस गाने के द्वारा वे यही संदेश देते हैं कि अगर जीवन में कभी किसी का साथ न मिला, मदद नहीं मिली, अकेला हो गया हो, तो भी वह मायूस होकर न बैठे बल्कि अकेला निडर होकर जीवन में आगे बढ़े।  इस प्रकार रवीन्द्र बाबू ने समाज में बसे साधारण लोगों को सरल भाषा में अपनी कविता के माध्यम से मानसिक स्थैर्य बनाए रखने की चेष्टा की।  लोकप्रिय रवीन्द्र अपनी कहानियों में भी अपनी भाषा को प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं।  सुंदर स्त्री से अपनी भाषा की तुलना कर भाषा की कोमलता को दर्शाते हैं। यथा - "बंगाली लड़की के मुख में बंगला बोली कितनी मधुर लगती है"[1]
            वे केवल भाषा प्रेमी ही नहीं थे बल्कि उनकी कृतियों के पठन से हमें यह ज्ञात होता है कि उन्हें भारतीय संस्कृति, सभ्यता और संस्कार से कितना प्रेम था।  उनकी सम्पूर्ण कृतियों में इनकी छटा यदाकदा दृष्टिगोचर होते ही रहते हैं।  उन्हें बंगाली संस्कृति और सभ्यता से विशेष लगाव था।  वे अपने प्रत्येक वाक्य में बंगाली 'पन' का इत्तर छिड़कने का प्रयास करते दिखाई पड़ते हैं।  उनकी रचनाओं में अपनी मातृभाषा के साथ-साथ अपनी मातृभूमि, गंगा नदी, पहनावा, वहाँ की स्त्रियाँ, उनका रहन-सहन जैसे कई तथ्य प्रतिबिंबित होते हैं।  यथा - "बंगाली तरुणी को निहारा था....."....."...."बंगाली बाला को पहली बार ही इस प्रकार से देखा कि उसका साहचर्य प्राप्त करने की उत्कृष्ट इच्छा जागृत हुई।  उसे देख कर प्रतीत नहीं होता था कि उसका संबंध पुस्तकों से टूटा या नहीं"[2]
बेटी के प्रति पिता का प्रेम 
            वर्तमान समय में वैवाहिक जीवन को लेकर स्त्री के जीवन में घुटन और कुंठित विचारों को जन्म दे रही है।  क्योंकि अब यह संस्कार दो परिवारों के बीच सत्संबंध की स्थापना कम और व्यापार का केंद्र अधिक बन गया है।  आश्चर्य की बात यह है कि वधू पक्ष के लोग अपनी बेटी के साथ-साथ वर पक्ष की सभी माँगे पूरे करते हुए भी स्वयं को असहाय अनुभव करते हैं।  अपनी बेटी के जीवन को लेकर व्याकुल रहते हैं।  सर्वधुनिक युग में भी प्रतिभा सम्पन्न स्त्री सुरक्षित नहीं है।  संस्कृति और परंपरा का नाम देकर असांस्कृतिक कार्य को ही बढ़ावा दिया जा रहा है।  स्त्री को एक व्यक्ति की दृष्टि से न देखकर उसे परंपरा, संस्कृति, संस्कार, मान-सम्मान जैसे भारी उत्तरदायित्व को ढोने का मात्र साधन माना जा रहा है।  मनुष्य जब से संस्कृति और सभ्यता का वास्तविक परिभाषा भूल गया है, तभी से मानव जीवन में और समाज में समस्याएँ प्रारम्भ हुए हैं।  अंधविश्वासों को संस्कृति, सभ्यता और परंपरा का नाम देकर एक ओर अपनी नुकसान कर रहा है तो दूसरी और आधुनिकता और विकास के नाम गलत मार्ग पर भटककर स्वयं को गर्त में डाल रहा है।  इसी तथ्य को प्रमाणित करते हुए रवीन्द्र नाथ ने अपनी एक कहानी 'अपरिचिता' में, नए रूप में प्रस्तुत किया है।  यथा -
            कल्याणी शंम्भूनाथ सेन की एक मात्र बेटी है, जिससे वह अत्यंत प्रेम करते हैं।  उन्हें अपनी बेटी को कुंवारी देख सकते हैं किन्तु विवाह के नाम पर व्यापार करना उन्हें कतई पसंद नहीं।  समाज के हर पिता कदाचित ऐसे ही सोचते होंगे, किन्तु व्यावहारिक रूप से वे कुछ नहीं कर पाते हैं।  परिस्थितियों के सामने हार मानकर हथियार डाल देते हैं और अंततः वे वही करते हैं जो वर पक्ष की मांग होती है।  किन्तु अगर उन परिस्थितियों से न घबराकर उनका सामना किया जाए, तो उसका परिणाम क्या हो सकता है?  ऐसा करने से अधिक से अधिक क्या नुकसान होगा? क्या वस्तुतः उतनी ही हानि होगी जितना उनका भय होता है?  उक्त प्रश्नों के समाधान के रूप में रवीन्द्र बाबू ने बहुत पहले ही 'अपरिचिता' कहानी की कल्पना की।  प्रेम से पाल-पोसने के उपरांत शंम्भूनाथ सेन अपनी कन्या का विवाह के लिए एक योग्य वर का चुनाव करता है किन्तु वर पक्ष के करतूतों को देखकर उनको मुँह तोड़ जवाब देता है।  वह अपने मनोबल को बनाए रखता है।  न शब्दों के बाण से उनकी मर्यादा को ठेस पहुंचता है और न ही अपनी आत्मसमान और प्रतिष्ठा पर आँच आने देता है।  यही व्यवहार भारतीय सभ्यता का मूलाधार है।      
            'अपरिचिता' कहानी में अनुपम (वर) के मामा सोने की आभूषणों की एक सूची बनाते हैं ताकि दहेज के रूप में जो दिखाया गया था, विवाह के बाद उसमें से कुछ कम न हो जाएँ।  किन्तु वधू के पिता जिस मात्रा में देने की बात तय करते हैं, वे उससे अधिक दर की एवं अधिक तौल की देते हैं।  वर के मामा विवाह में अपने साथ एक सुनार लेकर आते हैं ताकि दुल्हन के द्वारा धारण किए गए सभी गहनों की जांच ठीक तरीके से हो जाए।  वधू के पिता शंम्भूनाथ सेन वैसा ही करते हैं।  वर पक्ष की माँग के अनुरूप अपनी बेटी के सभी गहने  उतरवाकर जांच के लिए प्रस्तुत कर देते हैं।  उन सभी गहनों की जांच के पश्चात वधू के पिता उस इयरिंग की भी जाँच करवाते हैं, जो वर के मामा ने वधू को दिया था।  सुनार उसे भी जाँच करता है और कहता है कि "यह विलायती है और नकली है।"  तब वधू के पिता वर के मामा से कहते हैं "इसे आप ही रखें"। 
            सोने की जाँच के पश्चात वर के मामा अपने भांजे अनुपम से विवाह संस्कार के लिए बैठने के लिए कहते हैं तो शम्भूनाथ कहते हैं - "नहीं, अब सभा में बैठना नहीं होगा।  चलिये आप लोगों को खाना खिलादूँ...." खाना खाने के उपरांत वे पुनः कहते हैं – "आप लोगों को बहुत कष्ट दिया है मैंने।  हम लोग धनी हैं।  आप लोगों के योग्य व्यवस्था नहीं सकें, क्षमा करेंगे।  रात हो गई है, आप लोगों का कष्ट मैं और नहीं बढ़ाना चाहता।  तो फिर इस समय....।" भोजन के पश्चात वर के मामा कहते हैं - "तो सभा में चलिए, हम तो तैयार हैं।" तब शम्भूनाथ विवाह को स्थगित कर देते हैं और वे स्पष्ट रूप से कह देतें हैं - "तब आपकी गाड़ी बुलवा दूँ?"......"मज़ाक तो आप स्वयं कर चुके हैं।  मज़ाक के संबंध को स्थायी करने की मेरी इच्छा नहीं है""अपनी कन्या के गहने मैं चुरा लूँगा, जो व्यक्ति यह बात अपने मन में सोचता है, उसके घर में मैं अपनी कन्या नहीं दे सकता।"
            इस प्रकार वर्तमान समय में भी जिस विवाह संस्कार को अग्निपरीक्षा मानते हैं, रवीन्द्र बाबू ने उसका समाधान बहुत पहले ही कर दिया था।  छोटी सी कहानी 'अपरिचिता' के माध्यम से उन्होंने सही अर्थ में विवाह संस्कार, मान-मर्यादा, मानव-मूल्य, आदर्श की परिभाषा देने में सफल हुए।  एक कन्या का विवाह वहाँ होनी चाहिए जहाँ उसकी आत्मसम्मान का मान रखा जाता हो।
आनंद शब्द का सही अर्थ
संतुष्टि का पर्याय शब्द 'आनंद' है।  संतुष्टि किसी वस्तु या व्यक्ति की प्राप्ति से नहीं वरन् यह मनुष्य के मानसिक उपादान का नाम है।  मनुष्य का मस्तिष्क भौतिक जगत एवं उनसे संबन्धित लालसाओं का भंडार है।  ये लालसाएँ बारंबार एक के बाद एक कुकुरमुत्तों की तरह उग आते हैं।  अवांछित विषयों के पीछे दौड़ते-दौड़ते, उन्हें बटोरते-बटोरते मनुष्य अपनी जीवन की सारी शक्तियाँ, समय और ऊर्जा अज्ञात रूप से खोता चला जाता है। भ्रम रूपी बवंडर में फँसता चला जाता है।   उसी पद्धति को जीने का तरीका समझने लगता है।  भौतिक सामग्रियों के संचय में वह जीवन का अत्यधिक मूल्यवान समय खोता है और सामग्री प्राप्त करके वह स्वयं को योग्य, चतुर और उत्कृष्ट समझने लगता है।  किन्तु वास्तव आनंद का लाभ और उसका मूल्य तो उसे ज्ञात ही नहीं होता।  कई संतों की लालसा भी आनंद प्राप्त करना होता है।  संतों का 'आनंद' भी 'धन' है किन्तु वह भौतिक और स्थूल धन से भिन्न होता है।  -
गोधन, गजधन, वाजिधन, रतनधन खान।
जब आए संतोष धन, सब धन धूरि समान!!
'अपरिचिता' कहानी में, दहेज के चलते अनुपम का विवाह कल्याणी से रुक जाता है।  कुछ दिनों पश्चात अनुपम की भेंट कल्याणी से हो जाता है।  अनुपम कल्याणी को पहचान लेता है किन्तु कल्याणी अनुपम को नहीं पहचानती।  वह तब भी अविवाहिता ही रहती है।  अनुपम कल्याणी का स्वभाव देखकर उसे पसंद करने लगता है।  दोनों एक ही जगह कार्यरत रहते हैं।  अनुपम किसी भी परिस्थिति में कल्याणी से अपनी विवाह से संबन्धित बातें नहीं करता है।  वह केवल उसका साथ चाहता है।  वह इसलिए आनंदित है कि उसे जीवन संगिनी के रूप में न सही उसका साथ तो प्राप्त है।  - "तुम सोच रहे होगे, मैं विवाह की आशा करता हूँ।  नहीं, कभी नहीं।  मुझे याद है, बस उस रात के अपरिचित कंठ के मधुर स्वर की आशा – 'जगह है।'  अवश्य है।  नहीं तो खड़ा कहाँ होऊँगा?  इसी से वर्ष के बाद वर्ष बीतते जाते हैं, मैं यहीं हूँ।  भेंट होती है,  वही स्वर सुनता हूँ, जब अवसर मिलता है उसका काम कर देता हूँ और मन कहता है, यही तो जगह मिली है, ओ री अपरिचिता।  तुम्हारा परिचय पूरा नहीं हुआ, पूरा होगा भी नहीं, किन्तु मेरा भाग्य अच्छा है, मुझे जगह मिल चुकी है।"[3]
रवीन्द्र का दर्शन
            किसी भी व्यक्ति का बचपन भावी जीवन का आधार होता है।  इस तथ्य को वर्तमान मनोवैज्ञानिक चिकित्सकों ने भी स्वीकारा है।  मनुष्य के जीवन में शैशवावस्था अर्थात् जन्म से लेकर पाँच वर्ष के आते तक उसकी जीवन शैली का का ढांचा तैयार होकर स्थिर हो जाता है और उसी के अनुरूप वह जीवन में व्यवहार करने लगता है।  उसके बाद उसकी स्थिरता तभी भंग हो पाती है जब उसमें चिंतन की भावना जागृत होती है।  दूसरों को देखकर या प्रेरित होकर मनुष्य अनुकरण करने की चेष्टा करता है।  चाहे फिर वह उसके लिए हित हो या अहित।  ज्यों-ज्यों वह जीवन के अनुभव संचित करता आगे बढ़ता है, अनुकरण की प्रक्रिया कम होती जाती है और चिंतन चालू हो जाती है।  आयु के बढने पर भी कुछ लक्षण और परिवेशजन्य आदतें निरंतर उस व्यक्ति को संचालित करती रहती हैं।  चाहे फिर वे अच्छे हों या बुरे।  व्यक्ति जैसे-जैसे चिंतन करता रहता है, वह परिपक्वता की ओर बढ़ता जाता है।  रवीन्द्र अपने माता-पिता के पन्द्रहवी संतान थे।  किन्तु उनकी छोटी सी आयु में ही उनकी माता का देहांत हो गया था।  वे कम आयु में ही समझ गए थे कि जिस द्वार से वे गईं थीं, वहाँ से वे कभी नहीं लौटेंगी।  उन्हें अपनों से प्यार तो मिला किन्तु माँ की ममता का अभाव उन्हें उम्र से पहले ही दार्शनिक बना दिया था।  इस प्रकार परिवेश मनुष्य को प्रभावित करती है।   कहानी के माध्यम से वे एक जगह कहते हैं - "कल्पना से।  इसका कारण यह है की सच नीरव होता है और कल्पना वाचाल।  सत्य घटनाएँ भाव श्रोता को पत्थर की तरह दबाए रखती है, कल्पना ही उसका मार्ग मुक्त कर सकती है।"
मानव संबंध और संवेदनशीलता
            पशु-पक्षियों की तरह मनुष्य भी समुदाय में रहने वाला प्राणी है।  मानव समुदाय की पृष्टभूमि में सार्थकता की भावना निहित होती है।  वह समुदाय केवल साथ रहने के लिए नहीं बल्कि किसी सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए रहते हैं।  मनुष्य दूसरों से दो प्रकार से जुड़ता है।  मस्तिष्क से और हृदय से।  भारतीय संस्कृति में प्रायः हृदय के संबंध को अधिक महत्व दिया जाता रहा है।  जो 'वसुदैवकुटुंबकम' का आधार है।  किन्तु वर्तमान समय में, आधुनिकता के नाम पर मानव संबंध केवल मस्तिष्क से निभाए जाते हैं।  जो पाश्चात्य की ही देन है।  मनुष्य को भी एक संसाधन मानकर उनका प्रबंधन किया जाता है, जैसे अप्राण वस्तुओं के लिए किया जाता है।  अब मानव संबंध एक बंधन न होकर एक कला बन गई है।  जिसे निभाने के लिए हृदय और चिंतन की अपेक्षा केवल शाब्दिक प्रतिभा की और हेर-फेर और छल-कौशल की आवश्यकता होती है।  प्रेम की भावना होनी की आवश्यकता नहीं है, भाईचारा, एकता, सहायता, जानना, परिचय, जैसी भावनाएँ होने की आवश्यकता तो बिलकुल ही नहीं है।  बस एक नकली मुस्कुराहट ही काफी होती है।  कोई किसी के लिए न स्पंदित होता है और न ही किसी प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करता है।  बल्कि किसी भी स्थिति के लिए स्पंदित होकर मदद करना या प्रतिक्रिया के रूप में हँसना असभ्य और पिछड़ा माना जाता है।  मनुष्य विकास और सभ्यता के नाम पर कुमार्ग पर चल पड़ा है।  जीविकोपार्जन के लिए, बनावटी शिष्टता के पाठ सीख रहा है।   मानवता की सहज प्रवृत्ति और मूल धर्म को भूल रहा है।  वह स्वयं को ही नहीं पहचान पा रहा है।  जो व्यक्ति स्वयं को नहीं जानता, वह दूसरों से संबंध कैसे जोड़ पाएगा?  वह स्वयं अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहा है।  जिस डाल पर बैठा है उसे ही काट रहा है। 
             मानव संवेदनाओं की आवश्यकता एवं उनका महत्व पर प्रकाश डालने का प्रयास कई रचनाकारों ने अपनी रचनाओं द्वारा की और अब भी प्रयत्न जारी है।  इसलिए कई रचनाएँ बहुत ही भावुक और रागात्मक बन पड़ते हैं।  पाठक या दर्शक उन्हें पढ़कर या देखकर वैसे ही स्पंदित होते हैं जैसे कोई रचनाकर उसका सृजन करते समय अनुभव करता है।  मुझे आज भी अच्छी तरह से स्मरण है कि जब मैं पहली बार कबूलीवाला कहानी पढ़ी थी, तो मुझे कैसा लगा था।  मेरी छोटी सी उम्र में ही आँखों में आँसू आ गए थे।  भावुक होने का अर्थ मूर्खता या नादानी नहीं किन्तु दूसरों की मनोदशा को समझना है।  किसी की हृदय से निकली हुई बात को अनुभव करना है।  कहानी का सारांश निम्न है -
            काबुल से आए हुए रहमान मेवे बेचता है।  उसकी दोस्ती 2 वर्ष की मीनू से हो जाती है।  रहमान उसके लिए रोज मेवे लाता है।  प्रतिदिन उन दोनों के बीच कुछ बंधी-बंधाई बातें और परिहास होता रहता है।  रहमान को देखते ही मीनू हँसती हुई उससे पूछती है  – "काबुलीवाला! ओ काबुलीवाला।  झोली में क्या है?"  रहमान बेमतलब नकियाते हुए जवाब देता – "हाथी"  यही उनके मज़ाक का अर्थ था और इस मज़ाक से दोनों को बड़ा मजा आता।  लेखक के रूप में मीनू के पिता का कहना है – "सर्दियों की सुबह-सुबह एक सयाने और एक कम उम्र की बच्ची की सरल हंसी मुझे भी बड़ी अच्छी लगती।  मैं सारा माजरा समझ गया।  जो अठन्नी मैंने काबुली वाले को दी थी उसी को उसने मिनी को वापस कर दी थी।"
एक बार रहमान से एक व्यक्ति उधार में एक रामपुरी चादर खरीदता है और कुछ समय बाद वह पैसे देने से मुकर जाता है।  इसी बात पर उस व्यक्ति से रहमान की बहस हो जाती है और गुस्से में आकार रहमान उसे छुरा भोंक देता है।  रहमान अब भी गंदी गालियां बक रहा था की इतने में "कबूलीवाला, ओ कबूलीवाला" पुकारती हुई मिनी घर से बाहर निकल जाती है।  मिनी को देखते ही क्षण-भर में रहमान का कृध से लाल चेहरा एक उदीप्त मुस्कान से खिल उठा।  उसके कंधे पर झोली नहीं थी, इसलिए झोली के बारे में दोनों मित्रों की पुरानी बहस न छिड़ सकी।  मिनी आते ही एकाएक उससे पूछ बैठी – "तुम ससुराल जाओगे?"  रहमान ने हँसकर कहा – वहीं तो जा रहा हूँ।" रहमान को जेल हो जाती है।  
जेल से छूटकर रहमान मीनू से मिलने उसका घर जाता है।  वह मीनू की कल्पना करता है कि वह अब भी बच्ची ही होगी जैसे वह छोड़कर गया था।  मीनू के पिता कहते हैं कि - "आज हमारे घर एक जरूरी कम है।  मैं उसी में लगा हुआ हूँ, आज तुम जाओ।" उनकी बात सुनते ही, वह उसी क्षण जाने को तैयार होता है, किन्तु फिर भी दरवाजे के पास पहुँच कर रुक जाता है और संकोच के साथ कहता है – "एक बार मैं बच्ची को देख नहीं सकता क्या?"... "आज घर पर बहुत काम है।  इसलिए आज किसी से मुलाक़ात न हो सकेगी।"  यह बात सुनकर वह उदास सा हो जाता है।  थोड़ी देर तक बेबस खामोश खड़ा उनकी ओर एकटक देखता रहता है, फिर 'सलाम बाबू' कहकर दरवाजे से बाहर निकल जाता है।  किन्तु मीनू के पिता के हृदय में एक टीस सी उठती है, वे उसे वापस बुलाना ही चाहते थे कि वे देखते हैं कि वह खुद ही चला आ रहा है।  कमरे में आकार रहमान कहता है – "ये अंगूर, किशमिश और बादाम बच्ची के लिए ले आया हूँ, उसको दे दीजिएगा।"  वह ढीले ढाले कुर्ते से एक कागज निकालता है और बड़े प्यार से उसकी तहें खोलकर दोनों हाथ से उसे मेजा पर फैला देता है।  उस कागज पर एक नन्हें-से हाथ के पंजे की छाप होती है।  फोटो नहीं चित्र नहीं, काबुल से आते समय सिर्फ़ हथैली में थोड़ी सी कालिख लगाकर उसी से उसकी बेटी के हाथों का निशान ले लिया होता है।  बेटी की इस नन्ही सी याद को छाती से लगाए रहमान हर साल कलकत्ता की गलियों में मेवा बेचने आता था, जैसे उस नाजुक नन्हें हाथ का स्पर्श उसके बिछौह से भरे चौड़े सीने में अमृत घोले रहता था।  यह देखकर लेखक की आँखें भर आती हैं और वे सोचते हैं  – जो वह है, वही मैं भी हूँ।  वह भी बाप है और मैं भी।  उसी समय मिनी को बुलाता भी है और उसके बाद उसे अपनी बेटी से मिलने जाने के लिए उसे पैसे भी देता है। 
            इस प्रकार रवीन्द्र ने मानव संबंध और उसकी मार्मिकता को बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत कर पाए हैं।  निरस्वार्थ प्रेम मनुष्य में मनुष्यता की भावना जगाती है।  मनुष्य में संवेदनशीलता समाप्त हो जाती है तो वह पशुतुल्य हो जाता है।    
भावनाओं का प्रस्तुतीकरण
            रचनाकार अपनी कृतियों में पत्रों के माध्यम से अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करते हैं।  परम्पराओं के नाम पर समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और भय के कारण रस से भरा जीवन को स्वयं मूर्खता से नीरस बना लेते हैं।  रवीन्द्र एक आशावादी रचनाकार होने के कारण तत्कालीन सामाजिक समस्याओं का समाधान करने का भी भरपूर प्रयास किया है।  उनकी 'पड़ोसिन' कहानी विधवा विवाह के मुद्दे को लेकर चलती है।  उस कहानी के एक पात्र के द्वारा लेखक विधवा के बारे में कहलवाते हैं - 'उस चन्द्रलोक में अब भी तपिश है।  अब भी वहाँ गरम साँसों की हवा चल रही है।  वह किसी देवताओं के लिए नहीं, वरन मनुष्य के लिए ही है।  नवीन का लेखक मित्र बाल विधवा को देखकर निर्णय लेता है कि वह बंगाल में भी विधवा-विवाह प्रचलित करेगा।  जब उसका मित्र बहस करता है तो वह गुस्से में आकार स्पष्ट कहता है कि – "सुनो नवीन, कलाकार कहते हैं कि खण्डहर की अपनी एक खूबसूरती होती है, लेकिन किसी मकान को केवल चित्र के रूप में देखने से ही काम नहीं चलता क्योंकि उस मकान में रहना पड़ता है।  कलाकार कुछ भी कहता रहे, उस घर की मरम्मत जरूरी है।  वैधव्य के बारे में दूर बैठकर तुम चाहे जितनी कविताएँ  लिखना चाहो, किन्तु तुम्हें यह याद रखना चाहिए की उसमें आकांक्षाओं से भरा एक मानव हृदय अपनी अनोखी वेदना को लिए वास करता है"[4]
            इस प्रकार उनकी कहानियों में  सामाजिक चिंतन प्रस्फुटित होता है।  विधवाओं के प्रति उनकी सहानुभूति दृष्टिगोचर होता है।  वे अपनी अभिव्यक्ति कौशल से विधवा विवाह जैसा कठिन और वाद-विषय भी सरलता से प्रस्तुत करने की क्षमता रख पाए हैं।   रवीन्द्र का मानना है कि रचनाकर का हृदय अत्यंत कोमल और संवेदनशील होता है।  उनकी भावनाओं को वही समझ सकता है जो उन्हीं की तरह संवेदनशील और भावुक हो।  इसी तर्क को प्रमाणित करते हुए रवीन्द्र बाबू अपनी कहानी 'कवि का हृदय' में एक फूल से कवि की तुलना करते हैं। 
            'कवि का हृदय' कहानी में भगवान विष्णु कमल को देखकर मन-ही-मन विचार करते हैं कि 'मनुष्य' सृष्टि की सबसे सुंदर सृजन है और इसलिए वह एक सुंदर कमल के फूल को एक सुंदर युवती के रूप में परिवर्तित कर देता है।  तब वह युवती विष्णु से प्रश्न करती है कि अब वह किस स्थान में रहे?  विष्णु कमल से उत्पन्न हुई कोमल युवती को पृथ्वी, आकाश और जल में स्थान देना चाहते हैं किन्तु वह युवती कहीं भी नहीं रहना चाहती।  अंततः विष्णु युवती से कहता है – "जा कवि के हृदय में निवास कर" वह कवि वाल्मीकि के हृदय की गहराई को मापती है और उसका मुँह पीला पड़ गया और उस पर भय छा जाता है।  विष्णु पूछते हैं कि क्या उसे कवि के हृदय से भी डर है? वे फूल रूपी कन्या को समझाते हैं कि - "मनुष्य के रूप में परिवर्तित सुमन सुनो।  यदि कवि के हृदय में बर्फ है तो तुम वसंत ऋतु की उष्ण हवा का झोंका बन जाओगी, जो हिम को भी पिघला देगा।  यदि उसमें जल की गहराई है, तो तुम उस गहराई में मोती बन जाओगी।  यदि खाली वन है तो तुम उसके अंधेरे में सूर्य की किरण बनकर चमकोगी।"[5]
            इस प्रकार रवीन्द्र मानते हैं कि कवि का हृदय ब्रह्मांड से भी विशाल होता है किन्तु फूलों से भी कोमल।  रवीन्द्र की रचनाओं में भी मृदुता के साथ कठिन से कठिन तथ्य को प्रस्तुत करने की क्षमता होती है।  उनकी बहुमुखी प्रतिभा के कारण पाठक और अन्य रचनाकारों के लिए वे उत्प्रेरक बन पाए।  उनके उत्कृष्ट विचार और उन विचारों को स्पष्ट और सरल रूप से प्रस्तुत करने की कुशलता के कारण ही वे विश्व के साहित्य जगत में अपनी विशेष जगह बना पाए।  उनका पठन करने वाले पाठकगण निःसन्देह भाग्यशाली हैं।    





[1] रवीन्द्रनाथ टेगोर की यादगार कहानियाँ,(अपरिचिता), पृ.सं. 82
[2] वही,(कंचन) पृ.सं. 178
[3] रवीन्द्रनाथ टेगोर की यादगार कहानियाँ,(अपरिचिता), पृ.सं. 88
[4] रवीन्द्रनाथ टेगोर की यादगार कहानियाँ,(पड़ोसिन),पृ.सं. 89
[5] वही, (कवि का हृदय), पृ.सं. 261