धर्म वह अनुशासन है जो मनुष्य को परिष्कृत होने में सहायक होता है। जिन पद्धतियों को अपनाकर मनुष्य स्वयं और समाज
का कल्याण करता है, उसे मानव धर्म कहते हैं। भारत का सनातन धर्म इतना विशाल और व्यापक है कि
इसके भीतर अन्य सभी धर्म विलीन हो जाते हैं। इस धर्म को अपनाने वाले व्यक्ति निराडंबर एवं सामान्य दृष्टिगोचर होते हैं
किन्तु इनमें मनोबल बहुत ही दृढ़ और स्थिर
होते हैं। सम्पूर्ण समाज का संचालन करने
की दक्षता इनमें कूट-कूट कर भरी होती है। सभी क्षेत्रों में समृद्ध होकर भी समाज के लिए
कुछ न करने वाला व्यक्ति समाज का शत्रु ही रहता।
मानवता को न जानने वाला व्यक्ति पशु-तुल्य है। इसे जानकर भी उसका पालन नहीं करने वाला
व्यक्ति अत्यंत हानिकारक होता है। धर्म
जानकर भी उसका पालन नहीं करने वाला व्यक्ति अधर्मी व्यक्ति से भी अधिक हानिकारक
होता है और वही समाज को अधिक नुकसान पहुंचता है।
इसमें कोई संदेह नहीं।
समय
के अनुरूप 'धर्म' शब्द के अर्थ
में एवं इसकी परिभाषा में भी परिवर्तन आता गया।
धर्म के नाम पर कुछ अंश बढ़ते-घटते गए।
परिवर्तन समय की माँग भी है और स्वाभाविक भी। किन्तु यह तथ्य सत्य है की वह किसी भी अवस्था
में त्याज्य नहीं हो सकता। वर्तमान युवा
पीढ़ी धर्म, संस्कृति, सभ्यता जैसे अंश क्लिष्ट, भ्रमयुक्त और असाध्य मानते हैं। इसलिए
न वे उस दिशा में सोचना चाहते हैं और न किसी भी प्रकार का उत्तरदायित्व लेना चाहते
हैं। अपनी संस्कृतिक मूल्यों को निबाहने
के बदले आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य संस्कृति को अपनाकर आपे कर्तव्यों से भागना, उनका त्याग करना आज की पीढ़ी के लिए सर्वसामान्य हो गया है। आजकल अध्ययन के क्षेत्र में भी यही दृस्टिगोचर
हो रहा है। रटन और पद-क्रम की प्रक्रिया ने
चिंतन और विचार करने की प्रक्रिया पर हवी हो गई है। अध्ययन
में निहित वास्तविक संकल्पना का अर्थ जाता रहा है।
किसी भी व्यक्ति के बाह्याडंबरों
को देखकर उसके सांप्रदायिक धर्म आँका जा सकता है किन्तु उसमें निहित मानव धर्म का
आंकलन तभी संभाव हो पाता है, जब वह सांप्रदायिक
धर्म से ऊपर उठकर मानव कल्याण की संकल्पना करता है। मानवता का सरोकार उसके मानसिक एवं उच्च विचारों
का ध्योतक है, न कि बाह्य रूप या सांप्रदायिक आचार-व्यवहारों
से। मानवतावादी व्यक्ति समाज में अन्य
समाजिकों के साथ ही मिलकर रहते हैं और समाज का उत्थान ही इनका परम लक्ष्य होता
है। ऐसे लोग परमार्थ के लिए मंदिरों, जंगलों व चार धाम के नाम पर दर-दर भटकने के बदले जन कल्याण में ही वह
परमानन्द ढूंढ लेते हैं। मानव की सेवा में
ही माधव की सेवा का तथ्य जानते हैं। वास्तव में भगवान तो मात्र एक संकल्पना
है। ब्रह्माण्ड को चलाने वाली एक शक्ति । शक्ति का तो लिंग निर्धारण भी नहीं किया जा
सकता। किन्तु मनुष्य का सरोकार इस भौतिक
संसार से तो है। भारतीय वेदान्त की मूल
संकल्पना ‘ब्रह्म सत्यम और जगत मिथ्या’
है। इसका सारांश यह है कि शरीर अशाश्वत है
और यह भौतिक जगत मिथ्या है। किन्तु यह
तथ्य भी सत्य है कि इस जगत में मनुष्य की संकल्पना या मनुष्य के अस्तित्व के बिना
न ब्रह्म का अस्तित्व का ज्ञात होता है और न ही वेद-वेदांगों का। किन्तु प्रत्येक युग में इतिहास साक्षी है कि
समाज का कल्याण चाहने वाला व्यक्ति ही इहलोक में ही महान बना है। भगवान माने जाने वाले राम, कृष्ण, भी पृथ्वी पर आकार ही अपना अस्तित्व बनाया। आधुनिक
युग के विवेकानंद एवं मदर थेरिसा आदि मानवतावादी के लिए प्रसिद्ध थे। मध्य कालीन समय में कबीर बहुत ही प्रसिद्ध
हुए।
संसार में सांप्रदायिक धर्म
की संकल्पना भी मानवता और मानव के उत्थान को ही ध्यान में रखकर बनाया गया
होगा। कर्तव्य एवं नियम निश्चित किए गए
होंगे। भारत में 'हिन्दू धर्म' की संकल्पना आर्यों ने की। वर्तमान समय में, भारत
में कई सांप्रदायिक धर्म प्रचलित हैं, जैसे - मुसलमान धर्म, सिख धर्म, इसाई धर्म, बौद्ध
धर्म, जैन धर्म आदि।
स्वतंत्र भारत में अन्य धर्म भी स्वतंत्र रूप से बस गए हैं। इस संसार में भारत के अतिरिक्त कदाचित ही ऐसा देश
होगा जहां असंख्य धर्म एक साथ रहते हों। ये
सभी सांप्रदायिक धर्म कई वर्षों से आपस में सहोदर भाव से रहते, और साथ-साथ चलते चले आ रहे हैं। सहभातृत्व
की भावना अगर भंग भी होती है, तो वो केवल असमर्थ सत्ताधारी
व्यक्तियों के कारण ही। भारत का धर्म ही
इतना लचीला है कि मानवधर्म या मानव के उत्थान हेतु बनाए गए किसी भी धर्म को अपना
लेता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अन्य सांप्रदायिक
धर्मों के विचार भी ऐसे ही उच्च रहे होंगे अन्यथा भारत में इतने वर्ष अपनी
निरंतरता नहीं बनाए रख पाते। हम भाग्यशाली
और सम्पन्न हैं कि हमारे सम्मुख बेहतरीन जीवन के लिए इतने विकल्प हैं। इस मानव जीवन को धन्य मानते हैं क्योकि हम पशु-पक्षियों
से भिन्न हैं और मानव धर्म का अर्थ समझते हैं।
भारतीय आख्यान साक्षी हैं
कि भारतीय संस्कृति में 'जाती परक' धर्म को
महत्व नहीं दिया जाता था। उपर्युक्त कहे
गए तथ्यों के अनुसार यह भौतिक संसार और यह शरीर शाश्वत नहीं है किन्तु हम अपने
इंद्रियों से और मन से इस भौतिक संसार का अनुभव करते हैं,
स्पंदित होते हैं। इसलिए हमें सर्वदा
शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रहना आवश्यक हो जाता है। संसार को भी यथासंभव स्वस्थ एवं सुरक्षित रखकर
अगली पीढ़ी को सुपुर्द्ध करना अनिवार्य भी है और आवश्यक भी। हमें ऐसा कोई अधिकार प्राप्त नहीं कि हम उनका
दुरुपयोग करें और अपनी अगली पीढ़ी को दूषित संसार प्रदान करें, जिसमें उनका जीना दूभर हो जाए। सद्व्यवहार
ही सभ्यता है, संस्कार है और संस्कृति भी। समाज में जन्मे प्रत्येक नागरिक अपने अधिकार के
साथ-साथ कर्तव्यों का भी स्मरण रखना चाहिए। यही तथ्य निम्न कथा से स्पष्ट होता है। यथा -
एक बार आदिशंकराचार्य भिक्षाटन
करते हुए एक गरीब विधवा के घर पहुँचते हैं।
वह औरत बहुत ही आनंदित होकर कुछ लाने के घर के भीतर दौड़ती है किन्तु कुछ न
पाकर दुखी हो जाती है किन्तु उसे स्मरण हो आता है कि उसके पास उसके घर के आँगन के
आँवले के पेड़ से झडे कुछ आंवले रखे हैं।
वह उन्हीं को ले जाकर भिक्षापात्र में डाल देती है। तदुपरान्त शंकराचार्य भिक्षा हेतु अगले घर में
जाते हैं, और वे देखते हैं कि उस घर का मालिक उनके
जैसे कई अन्य ब्रह्मचारियों को दोनों हाथों से दान कर रहे हैं। शंकराचार्य उससे दान लिए बिना ही लौटने लगते
हैं। ब्राह्मण दौड़कर शंकरचार्य के पास
जाकर, हाथ जोड़कर दान लिए बिना जाने का कारण पूछता है, तो शंकराचार्य कहते हैं कि – "जब तुम्हारे
पड़ोसी के पास खाने के लिए कुछ नहीं है और तुम्हारे पास दोनों हाथों से लुटाने के
लिए इतना अनाज उपलब्ध है, तो इसका अर्थ यही है कि तुमने पाप का
संग्रह [खाद्य सामाग्री] किया है। इसलिए
तुम म्लेच्छ के समान हो। मैं एक म्लेच्छ
से पाप [भिक्षा] में नहीं ले सकता। मुझे
पाप की दक्षिणा नहीं चाहिए।" इस प्रकार शंकरचार्य
छुटपन में ही समझ गए थे कि अधर्मी ही म्लेच्छ होते हैं चाहे फिर वे किसी भी कुल, वर्ग या वर्ण में जन्मे क्यों न हो।
कबीर का भी यही मानना है कि
मानवता का अर्थ समानता, सार्वभौमिकता है। 'वसुधैव कुटुंबिकम' है। जिसका परम लक्ष्य मिलकर
समस्याओं का समाधान करना,
मिलजुल कर व्यक्तिगत और समाज के उत्थान में भागीदार बनाना, पर्यावरण की रक्षा करना, अन्य आध्यात्मिक और
सांप्रदायिक धर्मों का सम्मान करना, मिलजुलकर उत्सव मनाना, दूसरों की भावनाओं को समझना, आपसी समस्याओं का
शांति के साथ समाधान ढूँढना, निस्वार्थ बनना, पराया धन और असामाजिक कार्य न करना, स्थिति का लाभ न
उठाना आदि मानवता के लक्षण हैं। अनैतिक
संबंध बनाना, असामाजिक कार्यों में साझेदारी, दूसरों की आवश्यकताओं और
कमजोरियों का लाभ उठाना, परिश्रम के बिना परिणाम की अपेक्षा
करना, आरक्षण के नाम समाजिकों में ऊँच-नीच की भेद-भावना उत्पन्न
करना, धर्म के नाम पर मांसाहारी को शाकाहारी या शाकाहारी को
मांसाहारी बनाने की चेष्टा करना, आदि सार्वभौमिक समता के
बाधक हैं।
जन्म लेने के बाद कुछ अवधि
तक शिशु माता-पिता या अन्य व्यक्तियों पर आश्रित होते हैं और प्रारंपरागत रूप से
कुछ संस्कार सीखते हैं। किन्तु कुछ समय
पश्चात वे समाज में कदम रखते हैं और व्यक्तिगत रूप से स्वतंत्र हो जाते हैं; समाज से बहुत कुछ सीखते हैं । स्वतंत्र होने का अर्थ यह नहीं की वे समाज में
अपनी इच्छानुसार अनैतिक या असामाजिक कार्य करे।
इसका अर्थ यह है कि अब वह समाज के उत्थान में भागीदार होने में सक्षम है। नकारात्मक कार्य करने के विषय में कोई भी
व्यक्ति स्वतंत्र नहीं हो सकता चाहे फिर वह किसी भी स्थायी का क्यों न हो। इतना ही नहीं वह अपने कृत्यों का उत्तरदायी भी
होता है।
यह सृष्टि कई असमानताओं से
निर्मित है, किन्तु यह अत्यंत सुंदर है। छायावाद के काव्यों में उनका सुंदर प्रस्तुति
हमने देखा है। समाज भी कई भौतिक असमानताओं
से निर्मित है। इसमें रहने वाले सामाजिकों
में मानसिक, शारीरिक और आर्थिक असमानताएँ भी दृष्टिगोचर होती
हैं। उन्हीं असमानताओं को राजनीति बनाकर
व्यापार करना अमानुषिक है। क्या राजनीति का यही उद्देश्य होता है? असमानताओं को संतुलित करने का भार पूरे समाज पर है केवल सात्ताधारियों पर
नहीं। अगर समाज के सभी लोग भाईचारे से
भागीदारी से स्वयं का उत्तरदायित्व निभाने लगेंगे, तो सत्ताधारी
लोग भी गलत करने से पहले सहश्रों बार विचार करेंगे। किन्तु पूरा का पूरा दायित्व उनपर छोड़कर अकर्मण्य-सा
हाथ धरे बैठ जाएँ, तो स्वाभाविक है कि वह अपने सुविधानुसार
कार्य करेगा। समाज के कर्तव्यों को नेता
के सुपुर्द्ध करके मुक्त होना स्वयं के अधिकारों का खोना है। और अधिकारों को खोना जीवन को खोना है। यह
स्पष्ट है कि जहाँ कर्तव्य होता है वहीं अधिकार भी होता है। स्वयं में सामर्थता होगी तो असमर्थ व्यक्ति
नायक बनने का ही नहीं सकता।
मानव धर्म का अनुसरण करने
के लिए किसी भी व्यक्ति को अध्ययन कौशल या उपाधियों की आवश्यकता नहीं होती। मूल प्रवृत्ति मानवता की होनी चाहिए। दूसरों की स्थिति को समझकर यथासंभव उनका सहायता
कर पाना एक परम तत्व है। इस तथ्य का जीवंत
प्रमाण हैं, मध्ययुगीन के महान संत 'कबीर'। "मासि कागद छूओ नाहीं, कलम गही नाहीं हाथ"
कहने वाले कबीर यह भी कहते हैं कि –
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ,
पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होई॥
वर्तमान समय में पोथियाँ
केवल धनार्जन के साधन हैं। आज की पीढ़ी
पोथियाँ पढ़ने के उपरांत अहंकारी बन जाते हैं, संस्कार
तो ऐसे गायब हो जाता है जैसे गधे के सिर से सींग। किन्तु कबीर के उच्च विचार
हिमालय के जैसे अटल और चिरंतन है। गांगा
रूपी दोहे प्रत्येक युग में निरंतर जन-मानस के पटल में प्रवाहित होते ही रहेंगे और
सहृदय पाठक उनसे पुनीत होते रहेंगे। इसका
कारण यह है कि इनके दोहों की भाषा सरल और अनुकरण के लिए साध्य हैं।
आज का समाज इतना भौतिकवाद
हो गया है कि सरल और सामान्य तथ्य को भी नहीं समझना चाहते। लाभ हीन आचरण को व्यर्थ मानते हैं। अर्थप्राप्ति को दृष्टि में रखकर क्लिष्ट और
अप्रिय कार्य भी करने के लिए तत्पर हो जाते हैं।
'दूर के ढ़ोल सुहावने'
कहावत के अनुसार आज की युवा पीढ़ी विलियम शेक्सपियर, एडमंड
स्पेन्सर, माइकल ड्राइडन, समयोल डेनियल
आदि विदेशी साहत्यकारों के बारे में चर्चा करना, शिक्षा
ग्रहण करना और उनकी महानता का बखान करना एक फैशन समझते हैं। किन्तु एक और कहावत 'पानी
में रहकर मगरमच्छ से बैर' के अनुसार अपनी संस्कृति और भारतीयता
की आत्मा को आत्मसात किए बिना दूसरों की संस्कृति जान पाना असंभव है। इनका जीवन भी ऐसा ही जो जाएगा जैसे ‘धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का’।
हमें विदित है कि सैद्धान्तिक
आलोचना में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का महत्त्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने अपनी आलोचना में लोकमंगल और लोकपक्ष
को महत्त्व देते हुए तुलसीदास और कबीर को जगह दी। लोकपक्ष से सम्बद्ध न होने के
कारण उन्होंने सूरदास को भी जगह नहीं दी।
इस तथ्य से हमें यही विदित होता है कि समाज का हित न कर पाना असामाजिक कार्य
तो नहीं, किन्तु इससे केवल व्यक्तिगत प्रयोजन होगा है
सामाजिक रूप से नहीं।
'कबीर' के अनुसार मानवता का अर्थ केवल यह नहीं है कि एक व्यक्ति के प्रति दूसरा
व्यक्ति कैसा व्यवहार करे, बल्कि यह भी है कि स्वयं की मन की
भावना इतना उच्च हो कि यह भावना सहज ही दूसरों में भी जागृत हो जाए। एक मनुष्य होने के नाते इन तथ्यों के लिए कोई
विशेष नियम बनाने और उनका पालन अनिवार्य और बाध्य बनाया जाना बहुत ही लज्जाजनक बात
है। कबीर के अनुसार मन की शुद्धता शिक्षण
से नहीं आती बल्कि आचरण और साधना से आती है। यथा -
दिन भर रोजा रहत है, रात हनत है गाय।
यह तो खून वह बंदगी, कैसे खुसी खुदाय॥
मानवता का अनुसरण करने वाले
व्यक्ति सोच-विचारकर या योजनानुसार अपनी बात को नहीं रखते बल्कि वे सत्य, न्याय और उचित को ध्यान में रखकर अपने कार्याचरण करते
हैं। प्रतिष्ठा के लिए वे अपने विचार नहीं
गढ़ते बल्कि अपने विचारों से ही वे स्वयं प्रतिष्ठित हो जाते हैं। ऐसे व्यक्तित्व वाले लोग अक्सर क्रांतिकारी
लगते हैं। सच्चाई का बखान करना क्या
क्रांति से कम है? परम्पराओं के विरुद्ध जाना क्रांति नहीं
बल्कि सामाजिक कल्याण हेतु, नई परंपरा के निर्माण करने में
सही तर्क दे पाना क्रांति है। क्रांति 'अच्छे बदलाव' का द्योतक है न कि असामाजिक कार्यों के
लिए।
समाज में सुधार करना या
नेतागिरी करने की प्रवृत्ति फक्कड़ और मस्तमौला कबीर में नहीं थी। किन्तु वे समाज में व्याप्त अंधविश्वास और
कुरूपता को अवश्य निकाल फेंकना चाहते थे।
ऐसी प्रवृत्ति रखने वाले व्यक्ति स्वतः ही सुधारक लगने लगते हैं। वास्तव में कबीर भी उस समय के समाज में व्याप्त
अपने जैसे अन्य उत्पीड़ितों की सहायता करना चाहते थे। उनकी वाणी में जीवन सत्य को सहज ढंग में
प्रस्तुत करने की क्षमता कूट-कूट कर भरी थी।
उन्होंने समाज में रहने वाले ढ़ोंगी, पाखंडी, हठवादी और मिथ्याडंबर करने वालों पर प्रहार किया। इसीलिए इनके दोहे तीखे और व्यंग बन पड़ें हैं। यथा –
सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी, ओढि कै मैली कीनी चदरिया।
दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया॥
कबीर इस तथ्य को जानते थे
कि सामाज का कल्याण एक व्यक्ति से साध्य नहीं होता। समाज में बसे सामाजिकों की मानसिकता में
परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। इस बदलाव
के लिए वे निरंतन चिंतन किया करते थे। जीवन
के भटकन और उलझनों से मुक्त होकर शांति के साथ रहने,
और समाज के अन्य लोगों को भी शांति प्रदान करने के उद्देश्य से वे स्वयं अशांत
रहते। –
सुखिया सब संसार है, खावे अरु सोवे।
दुखिया दास कबीर है, जागे औरु रोवे॥
जिस प्रकार कबीर का लक्ष्य
कविता करना नहीं था, उसी प्रकार दर्शन का विश्लेषण या आलोचना भी
उनका गंतव्य नहीं था। किन्तु इनके
सार्वभौमिक प्रेम से सम्बद्ध विचारों में दर्शन स्वतः ही दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि दर्शन और कविता पृथक क्षेत्र हैं, किन्तु कबीर के दर्शन में या दोहों में, दर्शन और दोहे
विलीन होकर साथ चलते हैं। इस संबंध में
महादेवी वर्मा का कथन है – "कवि में दार्शनिक को
खोजना बहुत साधारण हो गया है। जहाँ तक
सत्य के मूल रूप का संबंध है वे दोनों एक-दूसरे के अधिक निकट है अवश्य, पर साधन और प्रयोग की दृष्टि से उनका एक होना सहज नहीं। बुद्धि के निम्न स्तर से अपनी खोज आरंभ करके, उसके सूक्ष्म बिन्दु तक पहुँचकर एक दार्शनिक संतुष्ट हो जाता है। उसकी सफलता यही है कि सूक्ष्म सत्य के उस रूप
तक पहुँचने के लिए वही बौद्धिक दशा संभव रहे।
अंतरजगत का सारा वैभव परखकर सत्य का मूल आँकने का उसे अवकाश नहीं, भाव की गहराई में डूबकर जीवन की थाह लेने का उसे अधिकार नहीं। वह तो चिंतन-जगत का अधिकारी है। बुद्धि अंतर का बोध कराकर एकता का निर्देश करती
है और हृदय एकता का अनुभूति देकर अंतर की ओर संकेत है। परिमाणतः चिंतन की विभिन्न रेखाओं का समानान्तर
रहना अनिवार्य हो जाता है। सांख्य जिस
रेखा पर बढ़कर सत्य की प्राप्ति करता है, वह वेदान्त को
अंगीकृत न होगी और वेदान्त जिस क्रम में चलकर सत्य तक पहुँचता है, उसे योग स्वीकार न कर सकेगा।"[1]
भगवान को लेकर कबीर का
मानना है कि भगवान और कहीं नहीं बल्कि हमारे विचारों और कर्मों में है। यथा –
मोको कहाँ ढूँढे, बंदे, मैं तो तेरे
पास में
ना मैं देवल, न मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में
ना तो कौने क्रिया कर्म
में, नहीं योग वैराग में
खोजी होये तो तुरंत मिलै
हैं, पल भर की तलास में
कहैं कबीर, सुनो भई साधो, सब स्वाँसों की स्वाँस
में
कबीर न मंदिरवाला थे, न मसजिदवाला। वे उन
दोनों को एक साथ मानवता के सूत्र में बंधे देखना चाहते थे। इसी तथ्य को भीष्म साहनी ने अपने नाटक 'कबीरा खड़ा बाजार में' में कबीर और कायस्थ (पात्र)
के मध्य सम्पन्न संवाद के द्वारा कबीर की मानवतावादी दृष्टिकोण को बहुत ही
प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। यथा
–
"कबीर :
मैं तो किसी को गाली नहीं देता, साहिब।
कायस्थ : तुमने दोनों को नाराज कर रखा है।
इससे बड़ी नादानी की बात क्या होगी? समझदारी
से काम लेते, एक वक्त में एक का विरोध करते, तो कम-से-कम दूसरा तो तुम्हारे साथ होता। मस्जिदवालों का विरोध करते तो मंदिरवाले
तुम्हारे साथ होते, तुमने तो दोनों को एक साथ अपना दुश्मन
बना लिया है।
कबीर : मैं तो किसी को अपना दुश्मन नहीं समझता।
कायस्थ : तुर्क तुर्क रहे, ब्राह्मण ब्राह्मण रहे, और जुलाहा जुलाहा। और तीनों
भगवान की भक्ति करें, यह बिलकुल मुमकिन है।
कबीर : तीनों भगवान के सच्चे भक्त, और तीनों एक-दूसरे
के दुश्मन। तीनों एक जगह बैठकर भगवान की
भक्ति नहीं कर सकते। ... ब्राह्मण ब्राह्मण को ही इंसान समझेगा, और तुर्क तुर्क को ही इंसान समझेगा और दोनों मुझे नीच समझेंगे।
कायस्थ : नहीं, नहीं तुम भूल करते हो।
कबीर : मैं उन्हें गले से लगाना चाहता हूँ, क्या वे
मुझे गले से लगाएंगे?
कायस्थ : इसकी क्या जरूरत है। जरूरत इस बात की
है कि भगवान उन्हें गले लगाएँ और भगवान तुम्हें भी गले लगाएँ।
कबीर : उनका भगवान मुझे गले नहीं लगाएगा साहिब, वह भी
उन्हीं को गले लगाएगा। फिर एक बराबर कैसे
हुए?
कायस्थ : क्या एक साथ मिलकर बैठना जरूरी है?
कबीर : सुनिए साहब, मैं हूँ तो नीच जात का अनपढ़ जुलाहा, पर एक बात तो मैं भी समझता हूँ। जब
तक किसी की नजर में एक ब्राह्मण है और दूसरा तुर्क, तब तक वह
इंसान को इंसान नहीं समझेगा। मैं इंसान को
इंसान के नाते गले लगाने के लिए, मंदिर के सारे पूजा-पाठ और
विधि-अनुष्ठान छोड़ता हूँ और मस्जिद के रोज़ा-नमाज़ भी छोड़ता हूँ। मैं इंसान को इंसान के रूप में देखना चाहता हूँ।"[2]
उपर्युक्त संवाद से हमें यह ज्ञात होता है कि कबीर एकता और मानवता के समर्थन
में कितने गंभीर थे। हमें यह भी विदित है
कि कबीर की भाषा साधुककड़ी भाषा है। किन्तु
उनकी उक्ति में भाव की सहजता के कारण वे अमूल्य और प्रिय बन पड़े हैं। भाव की उदात्तता की गरिमा को वहन करने की
क्षमता इनके दोहों में है। डॉ. हजारी
प्रसाद द्विवेदी, डॉ. रामकुमार वर्मा आदि ने उनकी भाषा की खूब
आलोचना की। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का
मानना है कि - "भाषा पर कबीर का जबर्दस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना
चाहा है, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया है। ...
भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार-सी नजर आती है।
उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाईश को
ना ही कर सके और अकथ कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की जैसी ताकत कबीर की
भाषा में है, वैसी बहुत कम लेखकों में पायी जाती है।"[3]
और हजारी प्रसाद का यह तथ्य बिल्कुल सत्य है।
उन्होंने प्रतीकों के माध्यम से ही दर्शन का स्वाद चखा देते हैं। यथा –
जल में कुम्भ कुम्भ
में जल है, बाहरि
भीतरि पानी।
फूट्यौ कुम्भ जल जलहिं
समाना, यह तत कथ्यौ गियानी॥
[जिस प्रकार जल से परिपूर्ण घड़ा पानी के भीतर रहता है, वैसी ही स्थिति काया के आवरण से बद्ध आत्मा की भी है। जिस प्रकार घड़े के फूट जाने पर घडे की सीमाबद्ध
पानी फिर बाहर के पानी में मिलकर सागर में मिल जाता है, उसी प्रकार शरीर का आवरण हट जाने पर आत्मा पुनः
परमात्मा में लीन होकर तादात्म्य हो जाती है।
इस प्रकार इनके दोहों में दर्शन के गूढ सिद्धान्त निहित होते हैं। सरल अभिव्यक्ति इनकी विशेषता है।]
निष्कर्ष रूप से हम यह कह
सकते हैं कि संत-काव्य में अनेक कवि होने पर भी कबीर का स्थान सर्वदा आगे हैं और
यह हिन्दी साहित्य के लिए गर्व की बात है।
जिस युग में इनका जन्म हुआ था, वह भारत
के इतिहास में अशिक्षा, अनैतिकता और अंधकार का युग था; और कबीर उस युग की जनता के निम्नतम स्तर से संबंध रखते थे; फिर भी उन्होंने ज्ञान की जो
ज्योति जलाई वह अद्भुत है, अपूर्व है। सुसंस्कृत युग और सुरक्षित समाज के सुपठित
कवियों में कबीर निराला थे। अन्य उच्चकोटि
की रचनाओं के साथ-साथ कबीर के पद भी अपने जैसे दूसरे पतित,
दलित एवं जर्जरित सामाजिकों का मनोबल बने।
निम्नवर्ग के अशिक्षित जन-समुदाय का अनैतिक, अनाचार
और अधःपतन की चरम सीमा तक पहुँचकर मटियामेट हो जाना स्वाभाविक था, किन्तु संत मत के विभिन्न उन्नायकों ने उन्हें एक नेतृत्व प्रदान किया
जिससे राष्ट्र का यह बहुसंख्यक वर्ग विनाश से बच सका। भारत का ऐसा महान प्रतिभाशाली, गंभीर चिंतक एवं स्पष्ट वक्ता परंतु अनपढ़ शायद ही विश्व-साहित्य और
विश्व-इतिहास में कहीं और मिलेंगे।
अपनी अनुभूतियों को सहज एवं
स्वाभाविक भाषा में अभिव्यक्त करके कबीर ने अपने सच्चे स्वरूप का उद्घाटन किया है। आधुनिक कवियों से भिन्न उनके विचार परिपक्व, स्पष्ट एवं जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करती हैं। मस्तिष्क के शुष्क विचारों को हृदय की अनुभूति
से अवगाहित करके सरल भाषा में व्यक्त करना इनसे ही साध्य है। वे परमात्मा को मानते थे किन्तु मानवता के
सच्चे अनुयायी होने के कारण मानवता की भावना को ही उन्होंने उस परमात्मा के प्रति
अपना भक्ति माना। "भाषा कैसी भी हो, भाव चाहिए मित्र" की उक्ति कबीर की वाणी पर पूर्णतः चरितार्थ होती
है।
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