वैश्वी संदर्भ में भारतीय संस्कृति : समकालीन प्रश्न
नाटकों के परिप्रेक्ष में
शारीरिक
या मानसिक शक्तियों का विकास ही संस्कृति है।
मानसिक शक्ति और विकास मानव का मन, व्यवहार, से ही व्यक्त होता है, जो निरंतर परिष्कृत होता चला
जाता है। मानव व्यक्तित्व बेहतर से
बेहतरीन बनाता चला जाता है। संसार भर में
जो सर्वोत्तम बातें कहीं गई हैं वे सब संस्कृति के अंतर्गत ही रखा जा सकता
है। इस प्रकार प्रकार हम कह सकते हैं कि
संस्कृति सर्वदा वैश्वी ही होती है। संस्कृति
का अनुसरण करनेवाला सभ्य लगने लगता है।
किन्तु सभ्य लगने वाला व्यक्ति संस्कारी भी होगा यह आवश्यक नहीं है।
यह सर्वविदित तथ्य है
कि संस्कृति मानव को सुव्यवस्थित सामाजिक व्यवहार प्रदान करने के लिए ही बदलती
रहती है। समाज के सभी लोगों का सुख ही
भारतीय संस्कृति का मूल संकल्पना है।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरमायाहः।
सर्वे भद्राणी पश्चंतु माकश्चितदुःखमाद्भवेत॥
इस पृथ्वी मे विभिन्न प्रान्तों में
जहाँ-जहाँ मानव अधिवास करता आया है, वहाँ वह अपने
द्वारा विकसित संस्कृति का प्रभाव छोड़ता आया है।
इस प्रकार प्रत्येक देश के हर क्षेत्र में आदर्शमय मानवीय संस्कृति विकसित
होती रही। भारत में कितनी ही विदेशी
संस्कृतियाँ आईं। कुछ समय के लिए वे भारत
पर छा भी गईं, किन्तु धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति के असीम
सागर में समाहित हो गईं। ऐसे उदाहरण किसी
अन्य देश के संदर्भ में कदाचित ही मिलते हैं।
मेक्समूलर ने संस्कृति को परिभाषित करते हुए अपनी किताब 'इंडिया : ह्वाट केन इट टीच अस' में कहा है, "यदि मुझसे पूछा जाए कि सबसे पहले इस धरती पर मानव विवेक कहाँ
विकसित हुआ और जीवन की समस्याओं का समाधान भी हमें सबसे पहले कहाँ मिल पाया? तो मैं कहूँगा – भारत में और केवल भारत में ही।"[1] इसीलिए दिनकर जी अपनी कृति 'संस्कृति, भाषा और राष्ट्र' के 'हिन्दू-संस्कृति की पाचन शक्ति' नामक शीर्षक में हिन्दु संस्कृति की क्षमता को सिद्ध करते हुए कहा है –
"हिन्दु-संस्कृति की पाचन-शक्ति बड़ी प्रचण्ड मानी जाती है। इसका कारण शायद यह है कि जब आर्य इस संस्कृति
का निर्माण करने लगे, तब उनके सामने अनेक जतियों को
एक संस्कृति में पचाकर समन्वित करने का सवाल था जो उनके आगमन के पहले से ही इस देश
में बस रही थीं। अतएव उन्होंने आरंभ से ही
हिन्दु-संस्कृति का ऐसा लचीला रूप पसंद किया जो प्रत्येक नई संस्कृति से लिपटकर
उसे अपना बना सके।"[2]
भौतिक परिवेश,
आनुवंशिकता, संस्कृति और विशेष अनुभवों के संयोजन से ही किसी
व्यक्ति का व्यक्तित्व बनता है। परिवेश, भौगोलिक वातावरण, सांस्कृतिक परिवर्तन भी
व्यक्तित्व पर प्रभाव डालती है। कुछ हद तक
परिवेश सांस्कृतिक विकास को भी निर्धारित करता है और संस्कृति मानव के विकास
को। इतना ही नहीं व्यक्ति का परिवेश से और
परिवेश से व्यक्तित्व व संस्कृति से संबंध तथा इन सब के बीच का संबंध भी स्पष्ट हो
जाता है। परिवेशजन्य स्थितियाँ प्रेरणा
कारकों से अनुमोदक व सीमित होती है। वे
व्यक्तित्व विकास में सीमाएं निर्धारित कर देती हैं। वंशानुगत परम्पराएँ मानव व्यक्तित्व का एक और
पहलू हैं। मानव व्यक्तित्व में समानता
आनुवंशिक माना जा सकता है। प्रत्येक मानव
समूह जैविक आवश्यकताओं और क्षमताओं को विरासत में लेकर आता है। ये आम जरूरतें और क्षमताएँ व्यक्तित्व में
एकरूपता दर्शाते हैं।
भारतीय संस्कृति में मानव व्यक्तित्व पृथक नहीं है। संस्कृति सभी विचारों और कार्यालापों का माध्यम
है। किसी भी व्यक्ति के अनुभवों और
सामाजिक सम्प्रेषण से तथा उसके विचार (रीति-रिवाजों,
मान्यताओं, मूल्यों, जाति, धार्मिक और सामाजिक समूह) से उसके व्यक्तित्व का अंकन किया जा सकता है। व्यक्तिगत पहचान संस्कृति से जुड़ा होता है। हम उस संस्कृति को अधिक मानते हैं, जो पारंपरिक रूप से हमारे बड़े-बूढ़े मानते आए हैं। परोक्ष रूप से हम सांस्कृतिक विरासत के वाहक
हैं। हमारी संस्कृति की परिभाषा को बदलना
कठिन है और उससे हम स्वयं को अलग भी नहीं कर सकते। हम किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व या मूल्यांकन
उसके सांस्कृतिक मूल्यों पर निर्भर होता है।
व्यक्तित्व आनुवांशिक होता है।
परिवेश के प्रभाव से कुछ और तत्व जुड़ जाते हैं। संस्कृति समकालीन भाषा के
माध्यम से, व्यवहार के माध्यम से व्याप्त होता है। परिस्थितियाँ संस्कृति के साथ उसमें बसे मानव
व्यक्तित्व के विकास को भी प्रभावित करती है।
पश्चिम की भौतिकवादी, भोगवादी, और उपयोगितावादी संस्कृति के अनुकरण का
परिणामस्वरूप भारतियों में सभी नकारात्मक तत्व विद्यमान हैं। किसी भी संबंध को गंभीरता से नहीं लेते। सूक्ष्मग्राहिता और संवेदनशीलता अपनों के प्रति
भी जाती रही है। हर वस्तु अस्थायी और यूस
अण्ड थ्रो बन गई है। चाहे वह मानवीय संबंध हो या फिर रोज़मर्रा की नित्य वस्तु
हो। आज अधिकांश भारतीय युवा माल-संस्कृति, रेडीमेड-वस्त्र, इन्स्टेट भोजन और इलेक्ट्रानिक
उपकरण के आदि हो गए हैं। ये सभी वस्तुएँ
वैभव के प्रतीक बन गए हैं। माँ के लड्डू
से भी बेरर के पिज्जा और बरगर को महत्व दिया जाता है। घरेलू पकवानों को नहीं खाना, अपनी भाषा का प्रयोग नहीं करना, ब्रांडेड कपड़ों का
पहनावा, माँ को ममी (मृत) और पिताजी को डैड (मृत) कहते हुए
अपने आपको संस्कारी समझना आज के युवा पीढ़ी का फैशन बन गया है। परिग्रह, विलासता, उच्छृंखलता, आडंबर,
यौन-उन्मुक्तता को अपनाने लगे हैं। जीवन
का लक्ष्य मात्र धन कमाना और उस धन से अधिकतम भोग-विलास प्राप्त करना है। पारिवारिक या सामाजिक उत्तरदायित्व में अपनी
सहभागिता देना समय की बरबादी समझते हैं।
दायित्वों को पैसों के बल पर दूसरों से पूर्ण करवाने पर विश्वास रखते
हैं। व्यक्तिगत सम्बन्धों से कोई सरोकार
नहीं होता। अन्य संस्कृति के नाम पर
वैश्वी संस्कृति को छोड़कर जो अंधाधुंद अनुकरण किए जा रहे हैं, किसी का हित नहीं कर सकती। युवा
पीढ़ी को ही संबोधित करते हुए विवेकानंद कहते हैं – "गर्व से कहो कि हम
भारतीय हैं और सभी भारतीय हमारे भाई हैं।
अज्ञानी और दरिद्र ब्राह्मण और परीहा (अछूत) सभी हमारे भाई हैं। भारत के देवी-देवता हमारे हैं। अपना समाज ही बचपन का झूला, यौवन का नंदनवन और बूढ़ापे की काशी है।
भारत की मिट्टी ही स्वर्ग है। भारत
का कल्याण है और इसके लिए दुर्बलता को छोड़कर सबल बनो"[3]
सांस्कृतिक
विकास का प्रथम सोपान दोषमार्जन है।
सांस्कृतिक विकास का प्रथम सोपान दोषमार्जन है। दूसरा अतिशयाधान और तीसरा हीनांग पूर्ति है। जिस प्रकार प्राप्त खाद्य पदार्थ को धोना
दोषमार्जन है,
उसे तरह-तरह से पकाना अतिशयधान एवं नमक, मसाले से
उसका संबंध जोड़कर कुछ कमियों को पूरा करना हीनांग पूर्ति है,
उसी प्रकार मनुष्य अपने कमजोरियों से छुटकारा पाकर उत्थान का पथ अपनाना हीनांग
पूर्ति है। पाँच ज्ञानेन्द्रिय, हृदय तथा बुद्धि, ये सात-सांस्कृतिक विकास के आयाम
हैं। मानव के व्यक्तित्व – सामाजिक मानसिक
और आध्यात्मिक क्षेत्र में अर्जित समस्त विभूतियाँ संस्कृति की सीमा में आ जाते
हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति
अत्यंत विशाल एवं व्यापक एवं लचीला है। यह
कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारतीय संस्कृति में अन्य संस्कृतियाँ समाहित
हैं।
आजकल अंग्रेजी शब्द ‘Diplomacy’ बहुत प्रचालन में है। कूटनीति, राजनीति, व्यवहार कौशल, कुटिलनीति,
राजनय, स्ट्रेटजी आदि डिप्लोमसी के पर्याय हैं। यह एक ऐसा रंगीन पर्दा है, जिसके आड़ में सभी दुष्कृत्यों को
व्यवहार कुशलता के नाम पर की जाती है। यह
आज की संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है।
इस व्यवहार को आज की संस्कृति का एक मुख्य माना जाता है। काइयों ने इसे आपद्धर्म का पर्याय मानते
हैं। किन्तु सही अर्थ में नकारात्मक
कार्यों को डिप्लोमासी का जादूई नकाब ओढ़कर सकारात्मक के रूप में दर्शाया जाता
है। तर्क दिया जाता है। ऐसी व्यवहार कुशलता को सभ्य कहा जा सकता है
किन्तु सुसंस्कृत नहीं।
समकालीन परिप्रेक्ष में देखा जाए तो स्वाधीनता
प्राप्ति के बाद भारतीय
जन-मानस के लिए नई आशाएँ एवं उमंगे जगाने वाली घटना रही। जन-मानस के उद्वेलित संवेदनाओं के साथ साहित्य भी अंतरवाहा रूप में परिवर्तित होता रहा है जो समकालीन भारतीय संस्कृति, परंपरा और जीवन–शैली का द्योतक है। युगीन मांग के अनुरूप मानव की मानसिकता, साहित्य का स्वरूप बदलता रहा है और बदलता रहेगा। जैसा कि पहले कहा गया है, भारतीय संस्कृति अत्यंत लचीला है; और लचीला होने का अर्थ यह नहीं है कि गलत के साथ समझौता करना। व्यक्ति चेतना और जन चेतना सर्वदा तत्कालीन परिस्थिति का बोध कराता है।
जन-मानस के लिए नई आशाएँ एवं उमंगे जगाने वाली घटना रही। जन-मानस के उद्वेलित संवेदनाओं के साथ साहित्य भी अंतरवाहा रूप में परिवर्तित होता रहा है जो समकालीन भारतीय संस्कृति, परंपरा और जीवन–शैली का द्योतक है। युगीन मांग के अनुरूप मानव की मानसिकता, साहित्य का स्वरूप बदलता रहा है और बदलता रहेगा। जैसा कि पहले कहा गया है, भारतीय संस्कृति अत्यंत लचीला है; और लचीला होने का अर्थ यह नहीं है कि गलत के साथ समझौता करना। व्यक्ति चेतना और जन चेतना सर्वदा तत्कालीन परिस्थिति का बोध कराता है।
हिन्दी में अन्य विधाओं के
साथ-साथ नाटक विधा में भी अपने नए बोध एवं रूप ढूँढना आरंभ किया। समकालीन नाट्य परिदृश्य को समृद्ध करने में
मोहन राकेश,
शंकर शेष, लक्ष्मीनारायण लाल, सुरेन्द्र वर्मा, भीष्म साहनी, धर्मवीर भारती, गिरिराज किशोर, मणिमधुकर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, आदि नाटककर सक्रिय रहे। आठवें एवं नवें दशक में नरेंद्र कोहली, कुसुम कुमार, मृणाल पांडे, मन्नू भण्डारी, सुशील कुमार, मृदुला गर्ग, राजेश जैन, द्या प्रकाश सिन्हा, शरद जोशी, कुसुम कुमार, आदि प्रमुख हैं।
शंकर शेष, लक्ष्मीनारायण लाल, सुरेन्द्र वर्मा, भीष्म साहनी, धर्मवीर भारती, गिरिराज किशोर, मणिमधुकर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, आदि नाटककर सक्रिय रहे। आठवें एवं नवें दशक में नरेंद्र कोहली, कुसुम कुमार, मृणाल पांडे, मन्नू भण्डारी, सुशील कुमार, मृदुला गर्ग, राजेश जैन, द्या प्रकाश सिन्हा, शरद जोशी, कुसुम कुमार, आदि प्रमुख हैं।
समकालीन नाटकों में ऐतिहास, सामाजिक, राजनैतिक वस्तु का प्रयोग किया
गाया है किन्तु नाटक चाहे पौराणिक हो, सामाजिक हो, राजनैतिक हो या काल्पनिक; समकालीन बोध विविध
वस्तु-विधान में व्यक्तिगत एवं समीष्टिगत जीवन दृष्टि दो रूपों में प्रकट होती है।
आख्यानों के माध्यम से सामाजिकों के
सम्मुख समकालीन व्यक्तिगत एवं सामाजिक समस्याओं पर प्रश्न किए जाते हैं, जिससे दर्शक या पाठक चिंतन कर बेहतरीन समाधान ढूंढ पाए और साथ-साथ
सामाजिक समस्याओं का भी समाधान किया जाता है।
व्यक्ति चेतना के अंतर्गत शंकर
शेष का नाटक 'कोमल गांधार' और सुरेन्द्र वर्मा कृत 'सूर्य
की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक' नाटकों में तुलनात्मक विश्लेषण करने पर यह विदित होता है की लेखकों के चिंतन
में भी भिन्नता है। उपर्युक्त प्रस्तावित दोनों
ही नाटकों में राजनीति और राजसत्ता को बनाए रखने के लिए नारी अस्तित्व को दांव पर
लगाया जाता है। उनकी प्रतिक्रियाएँ एवं
संवाद पाठकों अथवा दर्शकों को चिंतन करने में बाध्य कर देता है। किन्तु नाटककार की प्रस्तुतीकरण में अवश्य अंतर
है।
शंकर शेष कृत 'कोमल गांधार' का पहला पात्र गांधारी
का है, जो अपने विवाह को लेकर अत्यंत प्रसन्न है। भीष्म एवं संजय गांधारी को गांधार देश से
हस्तिनापुर लेकर जा रहे होते हैं। गांधारी
को यह नहीं बताया जाता कि धृतराष्ट्र अंधा है। हस्तिनापुर पहुँचने के बाद जब गांधारी को पता
चलता है की धृतराष्ट्र अंधा है तो वह टूट जाती है और कहती है –
गांधारी : मेरे सहमती का कोई अर्थ नहीं है क्या? क्यों नकार दिया गया मेरे अस्तित्व को पूरी तरह? राजनीति इतनी क्रूर होती है क्या? अब समझ में आ रहा है भीष्म के शब्दों का अर्थ। भीष्म ने न केवल षडयंत्र रचा, उसे आखिर तक निबाहने की तैयारी भी की।
राजरक्त से जन्मे एक शरीर से ज्यादा कुछ नहीं माना गया मुझे क्यों?
सुरेन्द्र वर्मा कृत 'सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य
की पहली किरण तक' की नायिका शीलवती का विवाह ओक्काक से
पाँच वर्ष पूर्व हुआ था किन्तु राज्य को एक उत्तराधिकारी नहीं दे पाई। इसके जिम्मेदार स्वयं राजा ओक्काक ही है। पुंसत्व हीनता उसकी कमजोरी थी। राजसत्ता को ध्यान में रखकर राजपुरोहित, महामात्य एवं महाबलाधिकृत राजा ओक्काक को समझते हैं और मना लेते हैं कि
शीलवती उपपति के माध्यम से उत्तराधिकारी देगी।
जब शीलवती को पता चलता है
तो वह कहती है –
शीलवती : एक स्त्री की दृष्टि से आप नहीं देख सकते। … बिल्कुल अजनबी पुरुष के साथ...। समझ में नहीं आता... क्या करूँ... क्या न करूँ?...। … मेरे लिए कोई क्या कर सकता है। ... सोचती हूँ
और काँप-काँप जाती हूँ। ... एक अनजाना भवन, ...उस भवन का
शयनकक्ष ... उस शयनकक्ष की शैया... उस शैया पर... वेश्याओं के मनोबल की जितनी
सराहना की जाया, कम है।
शीलवती अपने पुराने प्रेमी को उपपति चुनती है और
पहली बार शारीरिक सुख का अनुभव करती है।
वह पुनः उससे मिलने के लिए गर्भ निरोध की औषधि का सेवन करती है। महामात्य के पूछने पर कहती है –
शीलवती : जब आप अपनी पत्नी के साथ सोते हैं...? ... तो क्या सोचते हैं उन क्षणों में? अमात्य-परिषद का चुनाव... सीमाओं की सुरक्षा? राजकोष की कमी? ... और आपकी पत्नी क्या सोचती है? ...दूधिया दाँत और अबोध मुद्रा? ...कितने मूर्ख हैं
आप! ...महामूर्ख! ...मूर्खों के सम्राट!... शयनकक्ष की यह समझ है आपको? ...... नारी की सार्थकता मातृत्व में नहीं है,
महामात्य! है केवल पुरुष के संयोग के इस सुख में... मातृत्व केवल गौण उत्पादन
है...जैसे दही से निकलता तो मक्खन है, लेकिन तलछट में
थोड़ी-सी छाछ भी बच जाती है...
इस प्रकार आधुनिक नाटकों की
प्रस्तुति मनोवैज्ञानिक रूप से किया जा रहा है।
भाषा-शैली का स्तर यथार्थता के नाम
से अत्यन्त समान्य और हल्का होता जा रहा है।
इस नाटक के विषय में डॉ. जयदेव तनेजा कहते हैं कि – "यह नाटक
समसामयिक स्तर पर मूल्यों के बदलावा के संदर्भ में कुस जातक के प्राप्त ओक्काक व
शीलवती के पत्रों के बहाने से दंपति सम्बन्धो की गहरी व बारीक छानबीन करता है तथा
शासक और शासन तंत्र के आपसी रिश्ते के विश्लेषण के माध्यम से सत्ता तंत्र के समक्ष
स्वयं सत्ताधारी की विवशता,
नपुंसकता और त्रासदी को रेखांकित करता है।"[4]
जन चेतना प्रधान नाटकों के अंतर्गत स्वतंत्र्योत्तर सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक शोषण मूलतः व्यवस्था में शोषित जन जीवन
की विविध समस्याओं का व्यापक एवं सशक्त अंकन हुआ है। इसके साथ-साथ शोषण से मुक्ति के लिए संघर्षशील
जान-चेतना की अभिव्यक्ति हुई है। जन चेतना प्रधान नाटकों के अंतर्गत सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का नाटक 'बकरी' और लक्ष्मीनारायण लाल कृत 'एक सत्य हरिश्चंद्र' खरा उतरते हैं।
जान-चेतना की अभिव्यक्ति हुई है। जन चेतना प्रधान नाटकों के अंतर्गत सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का नाटक 'बकरी' और लक्ष्मीनारायण लाल कृत 'एक सत्य हरिश्चंद्र' खरा उतरते हैं।
'बकरी' नाटक में तीन ठग एक गाँव में आते हैं और लोगों के अंधविश्वासों का
पूरा-पूरा लाभ उठाते हैं। किन्तु गाँव वालों
की दयनीय दशा के बाहर निकालने के लिए कर्मवीर नामक युवक कमर कसता है और अंत में
गाँववालों को अंधविश्वास के कूप से बाहर निकालने में सफल होता है।
दुरजनसिंह : पच्चीस साल के
इस बकरी की खोज हो रही थी। सरकार का
खुफिया विभाग, पुलिस,
पल्टन सब इसे खोज रहे थे। यह गांधीजी की
बकरी है। गांधीजी देवता थे। उनकी बकरी भी किसी देवी से कम नहीं है। अब इस बकरी को हम सेवाश्रम में रखेंगे। इसकी पूजा करेंगे। इसकी पूजा करने से तुम्हारे खेत लहलहाने
लगेंगे। पानी जमीन फोड़कर निकलेगा।[5] यह कहकर गरीब विपति की बकरी को हथिया लेते हैं।
कर्मवीर : अब भी कुछ समझे आप लोग?
आप लोगों ने बकरी को देवी माना। बाद में
सारा गाँव वह जाने दिया पर आसरम को नहीं डूबने दिया। गाँव की जमीन खोद-खोदकर आसरम की जमीन ऊंची करते
रहे। सूखे पड़े, खुद भूखे रहें। घर का अनाज आसरम को दे आए। आसरम में दावतें उड़ती रहें, खुद भूखों मरते रहे फिर उन्ही लुटेरों को कंधों पर बैठाकर देश की बाग-डोर
थमा आए। अब भी कुछ समझो आप लोग?[6]
लक्ष्मीनारायण
लाल कृत 'एक सत्य हरिश्चंद्र' नाटक में लौका नामक एक हरिजन व्यक्ति है। देवधार उसी गाँव का जमींदार है। हरिजन होने के बावजूद लौका अच्छा व्यक्तित्व
वाला व्यक्ति है। देवधार हमेशा कुछ न कुछ
हथकंडे अपनाकर उसे दबाने का प्रयत्न करता है।
किन्तु लौका हार नहीं मानता।
लौका : हमारे लिए सारी चिंता आप करते हैं, यही आपकी राजनीति है, अगर हम अपनी चिंता खुद करें तो यही पांचों की जीत है।
नाटक के अंत में गाँववाले तो
गाँववाले, देवधार के अनुयायी भी लौका का
पक्ष हो जाते हैं और देवधार के खिलाफ हो जाते हैं।
जीतन : प्रजा अब खुद शक्ति बन रही है। लोग जाग रहें हैं।
गाँव के लोग : हमारे दुख हमें
जागा रहें हैं। तुम्हारे चरित्र हमें समझा
रहे हैं। अब हम खुद अपनी लड़ाई लड़ना चाहते
हैं।
इस प्रकार हमें समकालीन नाटकों में जनमानस की संवेदनाएँ साहित्यकारों के
माध्यम से दृष्टिगोचर होती रहती हैं। शिल्प-शैली
के धरातल पर समकालीन नाटकों में याथार्थ के साथ अनेक गैरयथार्थ आख्यान भी सम्मिलित
हैं। समकालीन नाटककारों ने नाटक की भाषा
को नए आयाम और आस्वाद दिये। मानक हिन्दी
के साथ साथ शहरी और देहाती बोलियों का भी समावेश मिलता है। मौलिक नाटकों के अतिरिक्त विदेशी तथा देशी अन्य
भाषा के अनुवाद काफी मात्रा में हुए हैं,
जिसके फलस्वरूप हिन्दी नाटककारों और दर्शकों को अलग-अलग शैलियों और रंग दृष्टियों
वाले नाटकों के आस्वादन अध्ययन का अवसर प्राप्त हुआ। कुल मिलाकर संवेदना तथा रंग संरचना की दृष्टि
से समकालीन हिन्दी नाटक संस्कृति को साथ लेकर एक व्यापक परिदृश्य प्राप्त कर पाने
में सफल हो रहा है।
[3] पांचवा स्तम्भ,
सकारात्मक चिंतन एवं विकास का संवाहक, वर्ष-8, अंक-83, जनवरी-2014, डॉ.
बद्री प्रसाद पंचोली, पृ. सं. 21
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