Tuesday 19 May 2020


बदला नहीं बदलाव
    पाँच तत्वों में अग्नि ज्जवलनशील तत्व है| भारतीय दर्शन शास्त्र में इस तत्व का प्रमुख स्थान है| कहा गया है कि मुख्य रूप से, अग्नि तीन प्रकार के होते हैं| पहला वो जिसे हम अक्सर आग कहते हैं, जो किसी भी चीज को जलाकर भस्म कर देने की क्षमता रखती है| जिसे मनुष्य अपने सहूलियत के अनुरूप उसे उपयोग में लाता रहा है| दूसरा जठराग्नि, जो पेट में उत्पन्न होती है, जिसे आम भाषा में हम भूख कहते हैं| तीसरा वो आग जो मनुष्य के मस्तिष्क के अंदर बीज-सा अप्रकटित रूप में उपस्थित होता है और परिस्थितियों के अनुरूप प्रकट होता रहता है| यह आग जलन, ईर्ष्या, बदला जैसी भावानाओं का प्रतीक है| ऐसी भावनाएँ सबसे पहले उसी जगह पर चोट करती है, जहाँ ये उत्पन्न होती हैं| अर्थात् व्यक्तिगत रूप से पहले उन पर ही असर होगा| वह अपना सुद-बुध, विवेक खो देगा और सही निर्णय लेने में असमर्थ हो जाएगा| 

     आध्यात्मिक क्षेत्र में भी अग्नि का अत्यंत महत्व है| साधकों का मानना है कि पाँच महातत्वों में, अग्नि तत्व से मनुष्य की जितनी शुद्धि होती है, उतनी अन्य तत्वों से नहीं होती| जहाँ अग्नि का सकारात्मक पक्ष मनुष्य के उद्देश्य पूर्ति का काम आता है तो नकारात्मक सोच सामर्थ्य को भी असमर्थ में परिवर्तित कर देता है|  जिस प्रकार एक चिंगारी दावालन बन समूचे जंगल को जला सकता है, उसी प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली एक गलत सोच स्वयं के साथ-साथ समूचे समाज को भी नुकसान पहुँचा सकता है| कभी-कभी मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन इस आग के चलते बर्बाद हो जाता है| महाभारत का दुर्योधन इस कथन का सटीक उदाहरण है| इस आग को यदि माचिस की तिली बनाकर, काबू में रखा जाए, तो बहुत ही लाभदायक सिद्ध हो सकता है| बदले की आग स्वयं को उत्थान की ओर ले जाना चाहिए न कि पतन की ओर| वास्तव में बदला लेना आसान नहीं होता| इसके लिए शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक रूप से बलवान से भी बलवान बनाना पड़ता है| रणनीति अपनानी पड़ती है| इतिहास गवाह है कि जिस प्रकार चाणक्य ने रणनीति अपनाकर, बिना कोई शस्त्र धारण किए, बल प्रदर्शित किए, घनानन्द को मात दिया था| उसी प्रकार योजना, संयम और निरंतर प्रयास से कोई भी कार्य सम्पन्न हो सकता है इसमें कोई विकल्प ही नहीं है| चाहे फिर वह बदला ही क्यों न हो|  सोना आग में तपकर ही खरा होता है| शारीरिक बल या अधिष्ठान का बल अशाश्वत होता है| इसलिए हम कह सकते हैं कि बदला लेना असंभव भी नहीं होता| किन्तु यह ध्यान में रखकर बदला लेना होता है कि सामाने खड़ा शत्रु कौन है? आपके संग कौन हैं? आपकी ताकत क्या है?  समय कितना है? फिर अपनी रणनीति द्वारा समस्या को इस प्रकार कुचलना चाहिए ताकि वह पुनः जीवन में अपना सर न उठा सके| ऐसी जीत, मनुष्य के जीवन में दुबारा जन्म लेने जैसा प्रतीत होता है| हमारे वेद, उपनिषद जैसे महान ग्रंथ भी यही कहना चाहते हैं कि हार में ही जीत छिपी होती है उसे समझो, स्वयं जीवन को आनंदमय बनाओ किसी और के आने का प्रतीक्षा मत करो|
-      प्रोफेसर नंदिनी    
     बहुत अच्छा लेख लिखा है| यकीन नहीं होता है कि नंदिनी ने लिखा है| बचपन में कैसी थी और अब कितनी सयानी हो गई है| अच्छा लग रहा है– “प्रोफेसर नंदिनी......!!” आलोक को लंदन से भारत आए हुए पंद्रह दिन हो गए| उसे पुरानी बहुत-सी बातें याद आने लगी| मैं पंद्रह साल का था और वो बारह साल की|  वो अपने माता-पिता की एक लौती थी पर मेरे ऊपर दो भैया| लड़का होने के नाते मेरी सोच में, बोलने के तरीके में खेलने-कूदने में, दोस्ती करने के तरीके में काफी अंतर था| वैसे भी मैं थोड़ा बदमाश था| ऐसा अब लगता है| तब कोई बोलता था, तो मैं मुँह तोड़ देता था|  खैर....       
     वैसे हर दो-तीन साल में आलोक एक बार भारत आता-जाता रहता था पर किसी को भनक नहीं लगती थी| इस बार आलोक ने अपने पुराने दोस्तों से, विशेष रूप से नंदिनी से भी मिलने का पक्का प्लान महीनों पहले बन चुका था| फेसबुक में दोस्ती कर ली पर फोन नंबर माँगने की हिम्मत नहीं हुई थी किन्तु भारत आने से पहले वाले दिन फेसबुक पे एक मेसेज छोड़ दिया कि मैं कल भारत के लिए रवाना हो रहा हूँ|  मेरा लंदन का नंबर चालू रहेगा|  मेरा नंबर +44 7911 123456 है|   
प्लान के मुताबिक भारत में उन सभी पुराने दोस्तों से मिलकर आलोक बहुत खुश हुआ| बहुतों के बाल सफेद हो गए, कुछ के तोंद निकल आए, कुछ के तो बच्चों की शादियाँ भी हो चुकी हैं| अब समय बदल चुका है| बचपन की तरह नहीं रहा| माता-पिता से झूठ बोल लेते थे किन्तु पत्नियों से कोई झूठ बोलकर कोई बच सकता है भला! यह ज्ञानोदय भी हो गया|  सभी दोस्त अपनी पत्नियों से अनुमति लेकर, अगले दिन ऑफिस में छुट्टी लेकर बरसों बाद शराब पीते हुए नाइट आऊट किया था| बचपन की सारी बातें चोरी-चोरी सिगरेट और शराब पीने, फस्ट लव लेटर, क्रिकेट मैच के दौरान हुए झगड़े, निक नेम रखने जैसी कई बातों को खूब याद किया और बरसों बाद ठहाका मार-मार कर जी भर कर सबने हँसा भी| 
     दोस्तों की बात अलग है पर अब वह जिससे मिलने वाला है, वह एक लड़की है| अरे लड़की क्या, अब वह भी औरत है| दो बच्चों की माँ है| बचपन में उंगली चूसती थी|  आलोक मज़ाक-मज़ाक में अचानक आकार हाथ खींच देता, तो पीछे पड़कर मारने लगती थी| वैसे वो किसी से न कुछ बोलती थी न ही लड़ती थी| पढ़ाई में भी मंद थी|  हमेशा उंगली मुँह में डाले एक कोने में बैठी रहती थी|  वह अपने मा-बाबूजी की लाड़ली बेटी थी| माँ कहती थी कि उनके शादी के करीब दस साल देर से पैदा हुई थी इसलिए उसे सर चढ़ाकर रखते थे| वह उनके आँखों की तारा थी| मैंने दो-एक बार छेड़ा था, लेकिन मैं वह बात मजाक समझकर भूल गया था| शायद वो नहीं भूली थी| मुझसे बदला लेने के लिए दस दिनों बाद, न जाने उसने मेरी माँ से क्या कहकर मेरी शिकायत कर दी थी...... शाम को जब मैं खेलकर घर आया तो मेरी माँ ने डंडे से मेरी पिटाई कर दी| पहली बार मेरी माँ से मेरी जबरदस्त बहस हो गई थी| मेरे पापा मेरे दोस्त समान थे| उनसे पता चला कि नंदिनी ने शिकायत की थी| पापा ने प्यार से पूछा कि मैंने उसे क्या किया?  मैंने रोते हुए कहा - मुझे नहीं पता|  पापा समझ गए कि मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ| उन्होंने कहा लड़कियाँ लड़कों जैसी नहीं होती बेटा| वो कोमल और संवेदनशील होती हैं| उनसे दूर रहा करो, अब तुम बड़े हो गए हो| मेरी माँ ने भी, दोस्ती के चलते, उस बात को नंदिनी के घर वालों को नहीं बताया| उसके बाद, पापा का तबादला हो गया और हम वहाँ से दूसरे शहर चले गए| करीबन दस-बारह वर्षों के बाद पुनः नंदिनी के माता-पिता से मेरे मुलाकात तब हुई जब मैं पच्चीस साल का हो गया और एम सई ए के बाद मैं लंदन जाने की तैयारी कर रहा था| पासपोर्ट के सिलसिले में बाहर गया हुआ था| वो मेरे घर आए हुए थे| उन्हें देखते ही मेरा बचपन, वह सरकारी घर, गलियाँ सब याद आने लगीं| मैंने झुककर दोनों के चरण स्पर्श किए और वहीं बैठ गया|  दस मिनट पश्चात् वो जाने को हुए| माँ ने उन्हें रुकने के लिए नहीं कहा| उन्होंने कहा कि हम केवल आलोक को देखना चाहते थे कि अब कैसा दिखाता है| हाथ जोड़कर कहा- अब इजाज़त दीजिए| पिताजी से पूछने पर पता चला कि वे दरअसल नंदिनी का रिश्ता लेकर आए थे और माँ ने यह कहकर टाल दिया कि “बुरा मत मानना दर असल हम ऐसी लड़की के लिए देख रहे हैं जो थोड़ा पढ़ी लिखी हो| कल को अपने बच्चों को पढ़ा सके| क्योंकि वो अभी लंदन जाने वाला है| ताल-मेल हर जगह से होनी चाहिए| वैसे भी आपकी एक ही बेटी है| दूर भेजने से अच्छा है कि वो आपके नज़रों के सामने रहे|” मैं कुछ न बोला| उनके लिए बुरा जरूर लगा था|  कुछ दिनों बाद मैं लंदन चला गया| फिर मेरी, शादी, बच्चे, नौकरी…… 35 साल बीत गए|  
     दस दिन हो गए किन्तु नंदिनी का मेसेज नहीं आया| आलोक को बुरा लगा पर दुबारा मेसेज नहीं किया| करीबन 15 दिनों के बाद जवाब आया| माफ करना मैं बिजी हो गई थी इसलिए मेसेज नहीं देख पाई| मेरा फोन नं। +91 1234 456789 है| आलोक को बहुत खुशी हुई और घबराहट भी| हिम्मत जुटाकर, शिष्टता के साथ उसने नंदिनी से बातें की| बचपन के दोस्त की आवाज़ सुनकर नंदिनी भी बहुत खुश हुई| एक जगह मिलने का निश्चय किया| आलोक को रात भर नींद नहीं आई| कितनी बदल गई है नंदिनी| मेरे पुराने सभी दोस्तों में, इसने सबसे अधिक डिग्रियाँ ली है| कितना ठहराव आ गया है| पढ़-लिखकर एक मुकाम बना लिया है| सुबह से दिल में एक बेचैनी थी| नाश्ता भी ठीक से नहीं कर पाया| 
     अगले दिन जब मिले तो नंदनी ने पहला सवाल किया- अपनी पत्नी और बच्चों को साथ क्यों नहीं लाए? आलोक ने कहा कि- लंदन से 2-3 साल में एक बार भारत आते हैं| मैं अपने माता-पिता को देखना चाहता हूँ और वो अपनी| यहाँ एक हफ्ता भर थी अब वो अपने माँ के यहाँ गई है| 15-20 दिनों में मैं खुद वहाँ जाकर सास-ससुर जी से मिलूँगा और फिर वापस लंदन| अरे शुक्र मान मैं तुझे देखने लंदन से आया हूँ तू कब आएगी लंदन मुझे देखने?
मेरे बच्चे अमरीका में हैं| वहाँ गई थी एक-दो बार, वया लंदन, तब याद आता था कि तुम यहीं पर रहते हो| वैसे भी देर इज़ नो टाइम यू नो|  यूनिवर्सिटी, स्कॉलर्स, सेमीनर्स, बुक्स पब्लिशिंग एक्सएट्रा-एक्सएट्रा...... अब लंदन के लिए कहाँ से टाइम लाऊँ बोलो? चौबीस घंटे कम पड़ते हैं मुझे| तुम ही मिल लिया करो जब भी भारत आओ|  इस बार पूरे परिवार के साथ आना|  मुझे अच्छा लगेगा| उम्मीद है कि आपकी माँ अच्छी हैं| मैंने सुना कि तुम्हारे पिताजी नहीं रहे| वो बहुत अच्छे इंसान थे| मुझे हमेशा प्यार से बातें करते थे|   
     मुझे भी सुनकर दुख हुआ कि तुम्हारे माता-पिता भी नहीं रहे| माँ ठीक-ठाक ही है| चाय पीते हुए, मुसकुराते हुए आलोक ने कहा– मैं एक व्यक्तिगत प्रश्न पूछूँगा बुरा तो नहीं मानोगी? नंदिनी की नजरें सीधे आलोक की नज़रों से मिली| नंदिनी ने चाय कप को ओठों से लगाते हुए पूछने का इशारा किया| हिचकिचाते हुए आलोक ने पूछा – तुमने इतना कैसे और कब पढ़ लिया? नंदिनी का चहरा गंभीर हो गया| उसके माता-पिता का चहरा उसके सामाने आ गया| वह आलोक की माँ के बारे में कुछ न बोली|  मुस्कुराकर फिर से चाय पीने लगी| आलोक ने कहा – देअर ईस नौ कंपलशन...... लीव इट| ऐवाज़ जस्ट...... यू नो......|  अमेरिका के किस स्टेट में तुम्हारे बच्चे हैं? आलोक ने बात बदल दी| नंदिनी ने कहा नो.. नो.. लेट मी गिव द आँसर...... इट्स आलराइट| एक्चुअल्ली ये किसी के चुनौती का जवाब है| मेरे पति एक साधारण सरकारी नौकरी करते हैं किन्तु शादी के बाद जब मैंने पढ़ने की बात की, उन्होंने मना नहीं किया| हर तरह से मेरा साथ दिया| वे जानते थे कि मेरे माता-पिता को मेरे पीछे देखने वाला कोई नहीं| इसलिए उन्होंने उन्हे अंतिम समय में अपने पास ही बुलावा लिया|  कहा- सामाने रहेंगे तो हमें चिंता नहीं होगी|  हम भी अपना काम निश्चिंत रूप से कर पाएँगे|  उन्होंने अपने माता-पिता की तरह सेवा की|  मैंने भी उन्हें मायूस नहीं किया| दर्शनशास्त्र की डिग्री लेकर जब मैं यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बनी, मारे खुशी के मेरे पिता बच्चों की तरह खुशी से फूट-फूट कर रोए और कहा अब मुझे डर नहीं| मैं चैन से मर पाऊँगा| मैं पहली बार उन्हें रोते तब देखा था, जब वे बत्तीस वर्ष पहले, तेरे घर से वापस लौटे थे| आलोक को असुविधा महसूस हुई चाय कप टेबल पर रखते कहा– आई याम रिएलि सॉरी फॉर व्हाट हेड हेपनण्ड| नऊ आई आस्क एन अपालजी ऑन बी हाफ मई मदर ऑल्सो.......सॉरी...... सॉरी। कहते-कहते उसके आँखों में आँसू आ गए| तब आलोक को अपने पिता की बात याद आ गई| “लड़कियाँ बहुत कोमल और संवेदनशीसल होती हैं|” झट से नंदिनी अपनी जगह से उठी और टिशू पेपर देते हुए बोली- मेरा मतलब तुझे दुख पहुंचाना नहीं था आलोक ...... सॉरी-सॉरी| आलोक भी मुस्कुरा दिया और कहा- अभी मुझसे बदला लेने के लिए तो नहीं बुलाया है न?  किसी से पिटवाओगी या फिर किसी को सुपारी-उपारी तो नहीं दिया है न......  
नो......नो...... नाट एट आल यार|  मैं गुस्सा नहीं हूँ|  इन्फैक्ट दट डे मेड मी टुडे|  मुझे पहले गुस्सा तो आया था पर मैंने एक चुनौती की तरह स्वीकार किया|  मेरे माता-पिता ने मेरा साथ दिया|  स्वावलंबी बनाया|  मेरे पास भी खुद को साबित करने का यह एक ही तरीका था|  यदि मैं तुम पर गुस्सा होती तो क्या मैं मिलने आती?  हम बचपन के दोस्त हैं|  बचपन के दोस्त बहुत कीमती होते हैं|  वी आर अलवेज फ़्रेंड्स...... हैं न? कहती हुई नंदिनी ने अपना हाथ बढ़ाया|  यस इन्डीड ...... कहते हुए आलोक ने उसे अपने गले से लगा लिया| मैं लंदन जाने से पहले तुम्हारे पति से जरूर मिलकर जाऊँगा कहते-कहते गला रुँध गया|  आलोक के आँखों में फिर एक बार आँसू आ गए| 
जयहिन्द 
शारदा 



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