Thursday 21 May 2020

दादी की काशी यात्रा

     आज आर्यन की दादी के गुजरे दस दिन हो गएसारा कर्मकाण्ड पद्धति के अनुरूप किया गया। आने-जाने वालों का ताँता अब भी लगा हुआ है। इन सभी कार्यों के साथ-साथ दादी की आस्तियाँ बहाने के विषय पर भी संजय और उसके भाइयों के बीच चर्चा हो रही हैचूंकि संजय भाइयों में सबसे बड़े थेनिर्णय और कार्याचरण में भी आगे रहना उनका धर्म था। वे अपनी माँ की आस्तियाँ काशी में बहाने के बारे में सोच रहे थे। किन्तु आर्यन के चाचाओं का मानना है कि गोदावरी नदी के किनारे उनका जीवन गुजरा है, अन्नदाता हैवह भी प्रमुख नदियों में एक है, वहाँ अस्थियाँ बहाने से क्या हर्ज हैइतनी दूर जाने की क्या आवश्यकता हैगंगा में बहाने मात्र से माँ तो वापस नहीं आएँगी न और न ही स्वर्ग की गारंटी है| “संजय भैया क्या माँ की आस्तियाँ गंगा में मिलाने से, या अधिक पैसे खर्च करने से ही प्रमाणित होगा कि माँ से प्यार है वरना नहीं? उठकर जाते हुए, धीमी आवाज़ में कहा- श्रद्धा और भक्ति से ही उन्हें मुक्ति मिलेगी...... ढकोसलों से नहीं..... वैसे भी अब पैसे बहुत खर्च हो गए हैं| अब दूसरे खर्चे बढ़ाकर किसको क्या प्रमाणित करना है? उनकी की दूसरी कठिनाई यह थी कि उनकी छुट्टियाँ भी खत्म हो गईं थी| इसलिए वे काशी जाने के बारे में अधिक उत्सुकता नहीं दिखा रहे थे। संजय ने कहा- "ठीक है अब तुम दोनों यही चाहते हो तो फिर मैं अकेला कर भी क्या सकता हूँ? तीनों मिलकर करते तो बात अलग थी| अब क्या मैं अकेला चना भाड़...... यह सुनकर आर्यन ने अपनी माँ की ओर देखा| श्रद्धा ने भी आर्यन को रसोईघर में आने का इशारा किया| आर्यन को बहुत गुस्सा आ रहा था|  श्रद्धा ने कहा – उनकी माँ हैं|  हम बीच में कुछ कहेंगे तो पापा कहेंगे कि छोटी मुँह बड़ी बात| श्रद्धा चाय का पतीला चूल्हे पर चढ़ा रही थी| आर्यन ने माँ के निकट आकर कहा – माँ काशी। बस एक आखरी बार| प्लीज़| बस यह कहते ही उसका गला रुँध गया और उसके आँखों से आँसू झरने लगे| तभी संजय वहाँ आया, कुछ देर के लिए दोनों को देखा और वहाँ का माहौल समझ गया| वहाँ से सीधे अपने भाइयों के पास गया और कहा- “देखो मैं बड़ा हूँ| अब आगे क्या करना है इसका मैं सोचूँगा| मैं अभी टिकेट बुक कर रहाँ हूँ काशी जाने के लिए| बोलो किसको आना है? पैसे की चिंता मत करो छुट्टी का सोच लो| अब सौ प्रतिशत तय है कि आस्तियाँ गंगा मैया में ही बहाई जाएँगी| चाहे तुम दोनों आओ या नहीं आओ|” दूसरे ने कहा- अभी-अभी तो चने की बात कर रहे थे आप...... इतने में इरादा कैसे बदल गया?  
     सारी रात आर्यन को दादी के साथ बिताए हुए अनमोल पल रह-रहकर स्मरण होने लगे| अपने बेटे से ही अपनी मन की बात न कह पाने की बेबसीखासकर काशी जाने वाली बात। उनकी वाणी की सौम्यताकोई भी बात कहने के लिए कितना संकोच करती थी। घर में सबसे बड़ी होकर भी किसी भी बात पर अपना अधिकार नहीं जताती थी। थोड़ा बहुत अपनी मन की बात या तो माँ को बताती या फिर यह होता था की माँ ही उनकी बातों से उनका उद्देश्य समझ जाती थी। शायद इसीलिए दादी भी अन्य बहुओं से अपनी बड़ी बहू को ज्यादा पसंद करती थी। उनका आपस में कभी भी लड़ाई नहीं हुई| और-तो-और मुझे कितना प्यार करती थी? कभी-कभी माँ से ज्यादा|  एक बार भी मुझे डाँट लगाई हो, मुझे याद नहीं| यह सारी बातें उसके आँखों के सामने तैर रहीं थी। अनायास ही उसके आँखों से पानी झरने लगे|  
     बीस वर्ष का आर्यन अपनी माता-पितासंजय और श्रद्धा का एक मात्र संतान है। वे नागपुर में रहते हैं। वह समझदार और होनहार युवक है।संजय एक सरकारी काम करता है और श्रद्धा केवल गृहस्थी को सुचरू रूप से चलाना ही अपना धर्म समझती है।आर्यन में भी अपनी माँ की शालीनता और अनुशाशन की छाप नज़र आती है। दादी साल में चार महीने नागपुर रहने आती थी। दादाजी जाने के बाद तीनों बेटों ने दादी को चार-चार महीनों के लिए बाँट लिया था। दादी को भी जगह बदलने के बाद नए माहौल में अच्छा लगता था किन्तु कुछ दिनों बाद दूसरे पोते-पोतों की याद आती थी तो वे चली जाती थीं। ज़्यादातर वह सबसे छोटे बेटे के घर चली जाती थीं क्योंकि उनके बच्चे छोटे थे तो उनके छोटे-छोटे काम करते हुए उनका मन बहल जाया करता था। 
     संजय के बाद का भाई हैदराबाद में रहता था। अपने दो बच्चों के साथ वह वहीं बस गया था| दूसरा भाई अपने तीन बच्चों के साथ एक छोटे से गाँव में रहता था|आर्यन की दादी को गाँव में रहना ज़्यादा अच्छा लगता था क्योंकि बच्चों के अलावा दादी को वहाँ का माहौल, लोग, हवा-पानी के अलावा पड़ोसियों को जानती थीबाजार जा सकती थीमंदिर जाना जैसे काम अकेले कर पाती थी| दादी को नागपुर जाना भी थोड़ा बहुत पसंद था किन्तु हैदराबाद जाने का मन नहीं करता था क्योंकि उन्हें भाषा भी नहीं आती थी|  सिर्फ परिवार जनों से ही बोल सकती थी| दूसरों को देखकर केवल मुस्कुराकर रह जाती थी| कोई कुछ पूछता तो कहती ‘तेलुगु नहीं’
     संजय के ऑफिस जाने के बाद आर्यन कालेज चला जाता था| उनके जाते ही वह श्रद्धा से बातें करती, कभी-कभी स्वयं को व्यस्त रखने के लिए, मना करने पर भी छोटे-मोटे काम करती हुई अपनी विगत स्मृतियों को ऐसे बताती थी जैसे अभी-अभी घटित हुआ हो| कभी-कभी काम न होने पर दादी पूजा-पाठ का समय बढ़ा लेती।  

पड़ोसी कभी मुसकुराते तो वह भी मुस्कुरा देती। कभी उनके भोजन और घर के काम के बारे में पूछ लेती। दादी प्रतीक्षा करती कि कौन-सा बहाना मिले या कब चार महीने बीत जाए कि वह फिर से गाँव वापस पास चली जाए।  छोटे बेटे को भी यही लगता था कि उसकी माँ उनके साथ हो ताकि उनके बच्चों की थोड़ी बहुत देखभाल और पत्नी को सहूलियत हो जाए।
एक बार दादी दूरदर्शन में बहुत ही लगन से महाकुंभ मेला का सीधा प्रसारण देख रही थी| करोड़ों लोग चीटियों की तरह भगवान का नाम लेकर गंगा स्नान कर रहे थे| सोफ़े से उठकर नीचे बैठ गई और गंगा को प्रणाम कर रही थी| आँखें बंद कर, तन्मयता से ऐसे झूमती हुई भजन कर रही थी जैसे बादलों को देखकर मोर| और-तो-और आँखों में आँसू भी थे| तभी आर्यन कॉलेज से आया था। वह दादी को देखा और टी वी की ओर भी देखा| कुछ न बोला| किताबें रखकर, थोड़ी देर के बाद अपने नाश्ते के साथ दादी के पास नीचे बैठ गया और दादी के साथ सीधा प्रसारण देखता रहा था। थोड़ी देर देखने के बादवहाँ की भीड़ को देखकर आर्यन ने कहा- "क्या जरूरत हैऐसे मर-मर कर एक सा काशी जाने की? पूरे साल भर में थोड़ा-थोड़ा करके भी तो लोग जा सकते हैं न? छोटे बच्चे भी कैसे पिस रहें हैं| इनको देखो ठीक से चल भी नहीं पा रहें हैं......!! ऐसा लगा रहा है मानो पूरी जनसंख्या वहीं हो| लो इनको देखो अपने लोग क्या कम पड़ रहे थे? हमारा देश ही देखने आए हैं, तो ताजमहल देखते, राजस्थान के किले देखते, यहाँ भीड़ वाली जगह में मरने आए हैं| तब दादी ने आर्यन से कहा –"महाकुंभ में जानापुष्कर में स्नान करनायह सब बहुत भाग्य की बात होती है बेटा| न जाने किस देश के हैं, पूर्व जन्म में इन लोगों ने जरूर कोई पुण्य का काम किया होगा, आज गंगा नहा रहें हैं| मुझे देखो इसी भूमि पर जन्म लेकर भी गंगा नहाने का सौभाग्य नहीं मिला| अब तो मरने वाली हूँ| हाथ जोड़ते हुए कहा- भोलेनाथ मुझे अगले जनम में गंगा के पास ही पैदा करना|” अरे दादी तुम कितनी भोली हो सीधा मोक्ष ही मांग लेती जहाँ से गंगा पैदा हुई है| तू नहीं समझेगा। काशी में प्राण त्यागना तो सरासर जैसे मोक्ष में पहुँचना है। हमारे गाँव में एक औरत थी। अपने पड़ोस में ही रहती थी। पैंसठ वर्ष की विधवा बुढ़िया। उसका एक अनाड़ी बेटा था।उसने सोचा कि वह और बड़ी हो जाएगी तो काशी नहीं जा पाएगी। इसलिए वह अपने बच्चे को किसी रिश्तेदार के यहाँ रखकर वह अकेली ही ट्रेन में बैठकर काशी चली गई। तब न आरक्षण था और न ही उन्हें वहाँ किसी को जानती थी| बस अपनी गठरी ली और गंगा-काशी कहती हुईपूछताछ करती हुई चली गई। सारा गाँव आश्चर्य चकित हो गया। लोगों को शंका हुई कि वह वापस आएगी भी या नहीं। उसके बेटे का क्या होगाउसकी शादी कौन करेगा| जायदाद का क्या होगा| वगैरह-वगैरह। किन्तु वह आई भी और भर-भर के गंगा लाई भी। सभी लोग उसे ढीठ कहते थे। अच्छे कर्म करने के लिए थोड़ा बहुत ढीठ होना पड़ता है बेटा।यह सुनकर आर्यन ने पूछा– “तुम भी ढिठाई से दादाजी से या पिताजी से पूछकर गंगा जा सकती थी| दादाजी न सही, चलो आज पिताजी के सामाने खड़े हो जाते हैं| आजकल तो और भी आसान है। ट्रेन में आरक्षण करलोबैठो और जाओ। अरे दादी हवाई जहाज में करवा लोगी तो घंटों में होगी तुम्हारी गंगा तुम्हारे सामने। क्या दादी लाइफ को कोंप्लिकेट कर लेती हो।” दादी और आर्यन की बातें श्रद्धा सुन रही होती है। संजय के ऑफिस से आने के कुछ समय बाद मौका देखकर वह कहती है– "एक बार सासू माँ को काशी यात्रा पर ले जाना है।बेचारी न कभी गई है और न ही अपने बेटों से कह सकती है। ससुर जी के जाने के बाद जैसे अकेली हो गई है। बहुत खुश हो जाएगीं। हम कितना कुछ खर्च करते हैं। यह तो हम कर ही सकते हैं। आपको जीवन भर याद करेगी। आशीर्वाद देती रहेगी और वही आशीर्वाद भगवान का वरदान के रूप में हमें मिलेगा। इस उम्र में अक्सर लोगों में यह चाह रहती है।" बात सुनकर भी संजय अनसुनी कर देता है और कहता है– “मेरी माँ को कुछ भी चाहिए होगा तो मुझसे नहीं कहेगी क्यावे ऐसे ही आजकल कमजोर रहती हैं और इधर-उधर घूमेगी तो और कमजोर हो जाएँगी। ऐसे भी आजकल स्वाइन फ्लू ज्वर चारों ओर फैला हुआ है। क्यों बेकार में उनकी जान संकट में डालेंकुछ का कुछ हो गया तो मुझे अपने भाइयों को जवाब देना पड़ेगा। अब इस उम्र में उन्हें इतनी दूर ले जाना न उनके लिए ठीक हैं और न ही हमारे लिए। यह बात यहीं छोड़ दो। इनके बारे में सोचकर न तू अपना भेजा खराब कर और न ही मेरा... समझी?  श्रद्धा तुनककर कहती है – “कोई माँ अपने बेटे से यह नहीं कह सकती कि मुझे ये चाहिए, वो चाहिए। यह दिलवादोवह दिलवादो। यह हमें समझना चाहिए और पता करना चाहिए कि उन्हें क्या चाहिए। संजय झल्ला उठता है और पूछता है -“क्या उन्होंने तुम्हें बताया है? श्रद्धा मौन हो जाती है। संजय अपने गुस्से को ठंडा करते हुए कहता हैठीक है अगली बार देखते हैं। फिलहाल तो नहीं हो सकता। चलो खाना खिलाओ। 
श्रद्धा दो दिनों तक संजय से नाराज रही| वह इसलिए नहीं कि संजय ने सासू जी को काशी नहीं भेजना चाहते थे, किन्तु इसलिए कि शादी किए हुए पच्चीस वर्ष होने के बावजूद उनकी बातों का अमल करना तो दूर कम से कम सोच-विचार-परामर्श भी नहीं किया जाता। सीधे आदेश दिया जाता है। वह विरक्त हो गई| उस दिन पति की बातों से अनजाने ही आँखों में आँसू छलक आए।
एक दिन जब संजय कार्यालय से घर आया, तो देखा कि घर पर ताला है। दूसरी चाबी से ताला खोलकर भीतर जाकर नहा-धोकर तैयार हो गया| सोचा बाहर गए होंगे आ जाएँगे| लेकिन जब बहुत समय के बाद भी नहीं आए तो चाय बनाने खुद उठकर जाने को हुआ, तब मेज़ पर पड़ी चिट्ठी दिखी| “रात का भोजन मेज़ पर रखा है खा लेना और चार-पाँच दिनों तक मैनेज कर लेना।  
    एक सप्ताह के बाद संजय रेलवे स्टेशन जाता है। संजय अपनी माँ को प्रणाम करता है और उनके हाथों से गंगाजल का केन लेने लगता है तो वह कहती हैं – “इसे मेरे साथ ही रहने दे बेटा। ये अब मेरे साथ ही जाएगी। इस जीवन से अब मेरी कोई अभिलाषा नहीं है। गंगा मैया को देखना ही मेरी इच्छा रह गई थी। कितने सालों से मेरे जी में था कि मैं विश्वनाथ का दर्शन करूँ। गंगा में नहाऊँ, मोक्ष कपाल में अपने पुरखों और तेरे पिताजी की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करूँ। तेरा लाख-लाख शुक्र है बेटा कि तुमने हमारे काशी जाने का कार्यक्रम बनाया। तुमने बड़े बेटे होने का फर्ज निभाया। मुझे बहुत संतुष्टि मिली। तुम्हारे पितर भी बहुत संतुष्ट होंगे| तुमने अपने हिस्से की ऋण चुका लिया बेटा| "संजय ने श्रद्धा और आर्यन की ओर देखा| मुफ़्त में वाहवाही बटोरते देख दोनों मुस्कुरा रहे थे| संजय को भी हँसी आ गई पर माँ की बातों का जवाब देते हुए उनके साथ चल रहा था| आर्यन और श्रद्धा अपना सामान लिए उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। 

जयहिन्द 
शारदा 

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